55. राजा भीमचँद का देहान्त
श्री गुरू गोबिनद सिंघ जी को एक दिन अकस्मात सूचना मिली कि राजा भीमचँद का देहान्त
हो गया है। वह कुछ दिन पहले से दिल के रोग से पीड़ित थे। गुरू जी ने अपने प्रतिनिधि
के रूप में दादी माँ नानकी जी तथा दीवान नन्दचँद को शोक व्यक्त करने के लिए कहिलूर
भेजा। प्रतिनिधिमण्डल ने अँत्येष्टि क्रिया में भाग लिया और गुरू जी की ओर से पुत्र
अजमेर को पगड़ी भेंट की। भीमचँद की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अजमेरचँद उत्तराधिकारी
बना किन्तु वह गुरू जी के साथ सामान्य संबंध चिरस्थाई न रख सका और वह ईर्ष्या द्वेष
में पड़ गया। वास्तविक कारण यह था कि गुरू जी ने बहुत विशाल आयोजन से खालसा पँथ की
सृजना कर डाली और पर्वतीय नरेशों को सुझाव दिया कि वे भी अमृत धारण करके खालसा पँथ
में सम्मिलित हो जाएँ किन्तु वे कर्मकाण्ड त्यागने को तैयार न हुआ। इस प्रकार फिर
से आपसी दूरियाँ बढ़ती चली गई। अजमेरचँद गुरू जी की बढ़ती हुई शक्ति को सहन नहीं कर
सका। वह बिना कारण भयभीत रहने लगा और गुरू जी को अपना शत्रु मानने लगा। कुछ समय के
अन्तराल में उसने हिमाचल प्रदेश के सभी पर्वतीय नरेशों की एक विशाल सभा बुलाई जिसमें
मुख्य प्रश्न यही रखा गया कि गुरू जी को परास्त करके श्री आनदंपुर का क्षेत्र किस
प्रकार खाली करवाया जाए। सभी ने पिछले कड़वे अनुभवों को याद करके कहा कि ऐसा करना
सम्भव नहीं। जब तक बादशाह औरँगजेब की सहायता प्राप्त नहीं कर ली जाती। किन्तु राजा
अजमेरचँद अभी सम्राट के इस कार्य के लिए सहायता प्राप्त करने का इच्छुक नहीं था
क्योंकि एक बार ली गई सहायता के बदले में बहुत बड़ी धनराशि लगान के रूप में देनी पड़ती
और युद्ध का समस्त व्यय भी उठाना पड़ता था। अतः कई अन्य विकल्पों पर विचार होता रहा।