54. बहादुरशाह का पर्वतीय नरेशों पर
आक्रमण
लाहौर के सूबेदार की रिर्पोट पाकर औरँगजेब ने अपने बेटे बहादुरशाह को सेना देकर गुरू
जी तथा पर्वतीय नरेशों के विरूद्ध लड़ने के लिए भेजा। सूचना प्राप्त होते ही नँदलाल
गोया जो कभी बहादुरशाह के पास मीर मुँशी की पदवी पर कार्य कर चुके थे, श्री आनंदपुर
साहिब जी से चलकर उसे लाहौर मिले और उन्होंने बहादुरशाह को श्री गुरू गोबिन्द सिंघ
जी के व्यक्तित्व एँव कार्यों से परिचित कराया तथा समझाया कि वह गुरू जी के विरूद्ध
बेकार में झँझट मोल न लें। उनके विरूद्ध सँग्राम करना मानवता का गला घोटने के समान
है क्योंकि वह हिन्दू-मुस्लिम सबके निरपक्ष सहयोगी हैं। उन्हें किसी जाति धर्म या
सम्प्रदाय से घृणा नहीं। वे केवल अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध हैं। अतः वर्तमान
स्थिति में लाहौर के व्यवहार में कहीं न कहीं खोट अवश्य होगा। पर्वतीय नरेशों तथा
सूबेदार के साथ गुरू जी की टकराहट इसी कारण हुई होगी। बहादुरशाह सूझवान तथा उदार
था, उसमें अपने पिता औरँगजेब की भान्ति कटटरता नहीं थी। अतः वह भाई नन्दलाल गोया की
बात समझ गया और उसने भाई नन्दलाल गोया जी को वचन दिया कि मेरा अभियान केवल पर्वतीय
नरेशों तक ही सिमित रहेगा। इसलिए गुरू जी अभय होकर निश्चित रह सकते हैं। यह आश्वासन
प्राप्त करके दीवान नन्दलाल गोया गुरू जी के दरबार में श्री आनंदपुर साहिब पहुँचे
और स्थिति से अवगत कराया और गुरू जी को तटस्थ रहने को कहा। वैसे भी गुरू जी किसी
पर्वतीय नरेश की सहायता करने के विचार में नहीं थे क्योंकि भीमचँद इत्यादि नरेश समय
असमय विचलित होकर केवल स्वार्थ सिद्धि का मार्ग ही अपनाते थे। उनकी मर्यादा अथवा
सिद्धान्त तो होता ही नहीं था। इस बार पर्वतीय नरेशों की आपसी फूट और गुरू जी से
अनबन के कारण मुगल सेना विजयी रही। जब बहादुरशाह कर वसूल करके पर्वतीय प्रदेशो से
दिल्ली लौटा तो औरँगजेब अपने पुत्र से अधिक प्रसन्न नहीं हुआ क्योंकि उसने गुरू जी
पर आक्रमण नहीं किया था। कुछ समय पश्चात जब औरँगजेब को गुरू जी पर आक्रमण न करने के
कारण का पता चला तो उसने तुरन्त नन्दलाल गोया की हत्या कर देने का आदेश दिया और अपने
गुण्डे श्री आनंदपुर साहिब भेजे। किसी प्रकार यह रहस्य बहादुरशाह को पता चल गया। वह
नन्दलाल गोया से बहुत स्नेह करता था। अतः उसने इस घटना की सूचना उन्हें तुरन्त भेजी
और सर्तक रहने को कहा।