53. गुलेर के युद्ध में गुरू जी का
सहयोग
अलिफ खाँ नादौन की लड़ाई में बुरी तरह पराजित हुआ था। भीमचँद विजयी होकर भी कायरतावश
कृपालचँद से सँधि करने भागा। सँधि की चर्चा में उसने अपना सारा दोष गुरू जी पर मढ़कर
कृपालचँद को प्रसन्न कर लिया था और दोनों अन्तरँग मित्र हो गये थे। उनकी मित्रता के
पीछे उनकी कपटपूर्ण प्रवृति थी, अतः परिणाम भी छलकपटमय होना स्वभाविक ही था। अलिफ
खाँ पराजित होकर जब लाहौर पहुँचा तो सूबेदार ने उसे खूब बुरा भला कहा। इस पराजय से
एक प्रकार से बादशाह की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा था, इसलिए लाहौर का सूबेदार
दोबारा अधिक शक्ति से धावा करना चाहता था। नादौन का युद्ध सन 1689 में हुआ था, अगले
ही वर्ष लाहौर के सूबेदार का क्रोध गुलेर राज्य के राजा गोपालचँद पर उतरा। आक्रमण
की योजना जब बन रही थी, तभी सूबेदार के एक सैनिक हुसैनी ने अपने आपको इस कार्य के
लिए प्रस्तुत किया और सूबेदार को पहाड़ी राजाओं को दण्डित करने का पूरा विश्वास
दिलाया। सूबेदार मान गया। हुसैनी एक बड़ी विशाल सेना लेकर पर्वत प्रदेश की और बढ़ा।
उसका निशाना राजा भीमचँद और श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी थे क्योंकि इन्हीं दोनों के
कारण अलिफ खाँ नादौन का युद्ध हारा था। हुसैनी अपनी फोज लेकर काँगड़ा के रास्ते से
ही श्री आनंदपुर साहिब जी की और बढ़ा। काँगड़ा में जब हुसैनी को पड़ाव पड़ा तो कपटी
कुपालचँद ने पुनः पुराना हथकँडा अपनाया। उसने हुसैनी को भी कुछ धन देकर मित्रता कर
ली। कहिलूर का राजा भीमचँद, कुपालचँद से पहले ही सँधि कर चुका था। वह भी पहुँच गया
और दोनों ने मिलकर हुसैनी को पक्का विश्वास दिला दिया कि उक्त क्षेत्र में झगड़े की
जड़ केवल श्री आनंदपुर साहिब वाले श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी हैं।
उनका दमन समस्त पहाड़ी राजाओं द्वारा बादशाह की अधीनता के समान
है। हुसैनी को यह बात मान लेने में कोई बाधा नहीं थी, क्योंकि नादौन में गुरू जी के
कारण पराजय का मुँह देखना पड़ा था। अतः निर्णय हुआ कि हुसैनी काँगड़ा से सीधे श्री
आनंदपुर साहिब जी पर हमल कर देगा और कृपालचँद तथा भीमचँद उसके सहयोगी होंगे। सेनाओं
ने श्री आनंदपुर साहिब जी की तरफ कूच कर दिया। गुरू जी को जानकरी प्राप्त हुई। गुरू
जी तो अर्न्तयामी थे, अतः भविष्य देख सकते थे। मुस्कराकर बोले– देखें, वाहिगुरू को
क्या मन्जूर है। हुसैनी की सेनाएँ श्री आनंदपुर साहिब पहुँचने से पूर्व गुलेर राज्य
के निकट पहुँची, तो भीमचँद को गुलेर के राजा गोपाल से अपना काई पुराना वैर याद आ गया।
उसने तिकड़म से हुसैनी को गुलेर राज्य को लूटने के लिए तैयार कर लिया। गोपाल ने भावी
दुर्भाग्य से बचने के लिए हुसैनी के शिविर में उपस्थित होकर पाँच हजार रूपये देकर
अपना पीछा छुड़ाना चाहा। हुसैनी तो शायद पाँच हजार में मान जाता, किन्तु कृपालचँद और
भीमचँद अधिक कपटी थे। उन्होंने हुसैनी को दस हजार की माँग करने को प्रेरित किया।
गोपाल के पास इतनी राशि नहीं थी किन्तु शिविर से बच निकलने की खातिर उसने अधिक राशि
का प्रबन्ध करने के बहाने वहां से छुटकारा पाया और भागकर अपने दुर्ग में सुरक्षित
हो गया। साथ ही गुरू जी के पास सहायता की प्रार्थना भिजवा दी।
गुरू गोबिन्द सिंघ जी जानते थे कि हुसैनी की सनाएँ यदि गुलेर को
न घेरती तो सीधी श्री आनंदपुर साहिब जी पर ही चढ़ आतीं। तब लड़ना तो पड़ता ही, ऐसे में
क्यों न गुलेर की सहायता करके युद्ध को श्री आनंदपुर साहिब जी से दूर ही निपटा लिया
जाये और राजा गोपाल की सहायता भी हो जायेगी। इसी विचार से गुरू जी ने अपने एक
सेनापति भाई सँगतिया जी को बहुत बड़ी सँख्या में शूरवीर सैनिक देकर गोपाल की मदद को
भेजा। अचानक सिक्ख कुमुक पहुँचने से कुपालचँद, भीमचँद आतँकित हो उठे। वे पहले श्री
पाउँटा साहिब में और बाद में नादौन में गुरू जी की शक्ति देख चुके थे। हुसैनी ने
भाई सँगतिया जी के पास सन्देश भिजवाया कि यदि गोपाल उन्हें पाँच हजार रूपये दे दे
तो युद्ध की मारकाट से बचा जा सकता है। गुलेर नरेश गोपाल तो पहले से ही इस शर्त के
लिए तैयार था। अतः उसने धन देना स्वीकार कर लिया। गोपाल के साथ भाई सँगतिया तथा उनके
सात शुरवीर योद्धा हुसैनी के शिविर में धन देने के लिए गए। भाई सँगतिया, कृपालचँद
और भीमचँद के कपट से परिचित थे। अतः किसी भी स्थिति के लिए तत्पर रहना जरूरी समझते
थे। उन्होंने अपने सिक्ख शूरवीरों तथा गोपाल की सेना को शिविर से कुछ दूर बिल्कुल
तैयार रहने को कह दिया था, युद्ध कभी भी छिड़ सकता था। उधर कपटी कृपालँचद और भीमचँद
की योजना ऐसी थी कि वे शिविर में ही गोपाल और सँगतिया को गिरफ्तार कर लेना चाहते
थे। पाँच हजार की राशि लेकर गुलेर को अभयदान देने की बात तो बहाना मात्र थी। गुलेर
नरेश गोपाल और सँगतिया जी जब हुसैनी शिविर में पहुँचे तो बदले हुए तेवर देखकर सारी
शरारत भाँप गये। उन्होंने जल्दी से अपनी समूची राशि सम्भाली और शत्रु के शिविर से
तेजी से बाहर निकले।
हुसैनी की सेनाओं ने जब तब उन्हें घेरने का प्रयास किया, सिक्ख
सैनिकों तथा गोपाल की सेनाओं ने उन पर धावा बोल दिया। बात ही बात में घमासान युद्ध
छिड़ गया। भाई सँगतिया में गुरू जी का उत्साह और अमित प्रेरणा कूट-कूट कर भरी थी, अतः
वह भूखे सिंघ की तरह शत्रु पक्ष पर टूटता और जिधर से निकलता, कटे हुए मुँडों और
तड़पते हुओं के ढेर लग जाते। डेढ़ दो घण्टे के निर्णायक युद्ध से ही शत्रु की सिटटी
पिटटी गुम हो गई। स्वयँ हुसैनी और कृपालचँद युद्ध में मारे गये। गुलेर पक्ष से भाई
सँगतिया जी और अनेक सुरमा शहीदी पा गये। राज्य की सेना के भी सेकड़ों सैनिक मारे गये।
शत्रु पक्ष को भारी जनहानि उठानी पड़ी। युद्ध के मुख्य नेताओं की मृत्यु देखकर अन्य
लोग घीरे-धीरे खिसकने लगे। भीमचँद और अन्य राजा, हुसैनी की मृत्यु पर पीछे हटने लगे
और दो ही घण्टे के बाद युद्ध भूमि से शत्रु पक्ष भाग चुका था। गलेरिया गोपाल को
अपूर्व विजय प्राप्त हुई। युद्ध का सामान भी भारी मात्रा में उसके हाथ लगा।
गोपाल ने गुरू जी के शुरवीरों का दाह सँस्कार बड़े सम्मान के साथ
वहीं कर दिया और स्वयँ आभार प्रकट करने के लिए वहाँ से सीधे श्री आनंदपुर साहिब जी
पहुँचा। गुरू जी ने उसके आगमन पर बड़े सत्कारपूर्ण ढँग से स्वागत किया और उसे
शाहीयाना सम्मान प्रदान किया। गुलेर के युद्ध में हुसैनी और कृपालचँद की मृत्यु तथा
पहाड़ी राजाओं से पराजित होकर भाग जाने से एक ओर तो गुलेर राज्य का महत्व बढ़ गया और
दूसरी और साहिब श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी मुगलों की आँखों में काँटे की तरह चुभने
लगे। जहाँ श्री आनंदपुर साहिब जी से पहाड़ी राजा काँपने लगे, वहीं श्री आनंदपुर
साहिब हमेशा के लिए मुगलों का निशाना बन गया। लाहौर के सूबेदार ने बादशाह औरँगजेब
को सन्देश भिजवाया कि पहाड़ी राजा श्री गुरू गोबिन्द साहिब जी की प्रेरणा और शह पर
कर नहीं देते। बल प्रयोग करके भी हम उनसे कर प्राप्त नहीं कर सके। इसलिए यदि सम्राट
को कर की राशि उगाहनी है तो शाही सेना भेजकर पहले श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को
रास्ते से हटाएँ। गुरू जी के होते हुए श्री आनंदपुर साहिब जी की बढ़ती हुई शक्ति के
रहते पहाड़ियों से कर वसूल नहीं किया जा सकता। औरँगजेब को सन्देश मिला, तो वह बड़ा
क्रोधित हुआ और वह गुरू जी को दण्डित करने की योजना बनाने लगा।