50. काजी सलारदीन की आशँका निवृत
श्री आनंदपुर साहिब नगर के निकट एक सलारदीन काजी रहता था। वह श्री गुरू गोबिन्द
सिंघ जी से भेंटवार्ता करने प्रायः आता रहता था। उसे गुरू जी के साथ आध्यात्मिक
विषयों पर चर्चा करने पर बहुत सन्तुष्टि मिलती थी। अतः वह न चाहते हुए भी गुरू जी
की प्रतिभा से प्रभावित खींचा चला आता था। एक बार उसकी उपस्थिति में पोठहार क्षेत्र
की संगत बहुत बड़े काफिले में अपने श्रद्धा सुमन लेकर उपस्थित हुई। संगत ने गुरू जी
को दण्डवत प्रणाम किया और अपने साथ जो उपहार लाये थे, भेंट किये और अपनी अपनी
मनोकामनाएँ अथवा जिज्ञासाएँ गुरू जी के समक्ष रखी। गुरू जी ने उन सभी की समस्याओं
का समाधान करते गये। कईयों को आशीष दी कि आपकी मनोकामना गुरू नानक के दरबार में
अवश्य पूर्ण होगी। यह देखकर काजी सलारदीन के मन में शँका उत्पन्न हुई कि सभी
दर्शनार्थियों की मनोकामना किस प्रकार पूर्ण होगी जबकि गुरू जी स्वयँ बताते हैं कि
विधाता ने जो भाग्य में लिखा है, कोई मिटा नही सकता ? फिर आशीष कैसे फलीभूत होगी ?
उसने अपनी आशँका का समाधान पाने के लिए गुरू जी से किसी अन्य दिन एकान्त के समय यही
प्रश्न रखा और पूछा कि गुरू जी क्या आप संगत का मान रखने के लिए उनको आशीष देते हैं
और कहते हैं कि तेरी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी अथवा विधाता के नियमों के विरूद्ध हो
भी जाती है। इस उल्झे हुए प्रश्न को सुनकर गुरू जी ने एक मोहर मँगवाई और काजी के
हाथों में देकर कहा– इसके अक्षरों को ध्यान से देखों। यह सब उल्टे हैं किन्तु स्यायी
लगाकर कागज पर प्रयोग करने से इसकी छपाई सीधी हो जाती है, ठीक इसी प्रकार साधसंगत
अथवा गुरूजनों के पास आने पर मस्तिषक के लेख सीधे हो जाते हैं। यदि व्यक्ति गुरू पर
श्रद्धा रखता है और गुरू की कृपा का पात्र बनने का प्रयास करता है।