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49. भालू को मोक्ष प्रदान

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दरबार में सदैव चहल-पहल बनी रहती थी। एक दिन श्री आनंदपुर साहिब नगर में एक कलँदर एक भालू लेकर आया। वह स्थान पर भालू के करतब और उदरपूर्ति के लिए दर्शकों से भिक्षा माँग लेता। उसे ज्ञात हुआ कि इस नगरी के स्वामी बहुत उदारचित हैं, वह उन सभी को सम्मानित करते हैं जो वीरता के करतब दिखाता है। अतः वह गुरू दरबार में उपस्थित हुआ और विनती करने लगा कि आप अवकाश के समय मेरा करतब देखें। मैं विशालकाय भालू से मलयुद्ध करता हूँ। गुरू जी ने आज्ञा प्रदान की। एक विशेष स्थान पर भालू के खेलों का आयोजन किया जाना था। भालू ने भान्ति भान्ति के नृत्य दिखाये और अन्त में कलँदर के साथ हुआ मलयुद्ध। मलयुद्ध को देखकर सभी सिक्ख सेवक हँसने लगे। गुरू जी को चँवर करने वाला भाई कीरतिया बहुत जोर से खिलखिला कर हँसा। उसकी असामान्य हँसी देखकर गुरू जी ने उस पर प्रश्न किया। कीरतिया जी आपने पहचाना है यह भालू कौन है ? इस पर कीरतिया शान्त होकर कहने लगा, नहीं गुरू जी ! मैं इसे कैसे पहचान सकता हूं, मैं कोई अर्न्तयामी तो हूँ नही। गुरू जी ने उसे बताया कि यह भालू तुम्हारा पिता है। यह उत्तर सुनकर भाई कीरतिया जी बहुत परेशान हुआ और गुरू जी से कहने लगा कि मेरे पिता तो गुरू घर के सेवक थे। वह आपके पिता श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी के समय में भी सेवा में समर्पित रहते थे, जैसा कि आप भी जानते हैं। हमारे पूर्वज कई पीढ़ियों से सिक्खी जीवन जी रहे हैं। यदि पूर्ण समर्पित सेवकों को मरणोपरान्त भालू की योनि ही मिलती है तो फिर गुरू घर की सेवा करने का क्या लाभ ? भाई कीरतिया जी की जिज्ञासा और दुविधा शान्त करने के लिए गुरू जी ने उन्हें बताया कि आपके पिता जी सेवा में सँलग्न रहते थे किन्तु उनके दिल में अभिमान आ गया था कि मैं श्रेष्ठ सिक्ख हूं इसलिए वह जनसाधारण को अपने कड़वे वचनों से अपमानित कर देते थे। एक दिन कुछ बैलगाड़ियाँ जिसमें गुड़ लदा हुआ था, अपने गँतव्य की ओर जा रही थीं। इनके चालकों को जब मालूम हुआ कि यहाँ श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी प्रचार दौरे पर आये हुए हैं तो वह तुरन्त अपनी बैलगाड़ियाँ चलती हुई छोड़कर दर्शनों के लिए आये।

उस समय आपके पिता जी से उन्होंने अनुरोध किया कि हमें भी प्रसाद देने की कृपा करें। वह उस समय संगत में प्रसाद वितरण कर रहे थे। उन्होंने इस मैले कुचैले कपड़े वाले गुरू के सिक्खों को कठोर शब्दों में कहा– पीछे हटकर खड़े रहो बारी आने पर प्रसाद मिलेगा। किन्तु वे सिक्ख जल्दी में थे क्योंकि उनकी बैलगाड़ियाँ चलते हुए आगे बढ़ती जा रही थीं। अतः उन्होंने पुनः आगे बढ़कर प्रसाद प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इस बार आपके पिता गुरदास जी ने उन्हें बुरी तरह फटकार लगाई और कहा– क्यों रीछ की तरह आगे बढ़ते चले आ रहे हो, सब्र करो, प्रसाद मिल जायेगा। इस पर उन सिक्खों ने वहीं पर गिरे हुए प्रसाद का एक कण उठाकर बहुत श्रद्धा से सेवन कर लिया और जाते हुए कहा– हम रीछ नहीं तुम रीछ हो। जो भक्तजनों से अभद्र व्यवहार करते हो। बस वही अभिशाप तुम्हारे पिता को भालू योनि में मरणोपरान्त ले आया। किन्तु वे गुरू के सिक्ख थे, इसलिए अब अच्छे कर्मफल के कारण गुरू दरबार में उपस्थित हुए हैं। यह वृतान्त सुनकर भाई कीरतिया जी गुरू जी के चरणों में लेट गये और विनती करने लगे कि हे गुरू जी ! कैसे भी हो मेरे पिता जी को क्षमा करके मोक्ष प्रदान करें। गुरू जी ने भक्त के अनुरोध के कारण उस कँलदर से वह भालू खरीद लिया और कड़ाह प्रसाद तैयार करवाकर समस्त संगत को उसके कल्याण के लिए प्रार्थना करने को कहा– जैसे ही प्रार्थना समाप्त हुई और भालू को प्रसाद खिलाया गया। जैसे ही भालू ने प्रसाद का सेवन किया वह कुछ देर में ही शरीर त्याग गया और बैकुण्ठ धाम को चला गया। गुरू जी ने उस भालू का मनुष्यों की तरह अन्तिम सँस्कार कर दिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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