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48. भाई जय सिंघ

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दरबार में अनेक विद्वान तथा कवि सुशोभित होते थे। कवियों में से 52 के नाम प्रसिद्ध है। इनमें से कोई दिमागी चमत्कारों के प्रवीण विद्वान ग्रँथों की टीका तथा कविता लिखते थे। कई विद्वान या तो वहाँ ही स्थाई रूप में रहने या सेवा में लगकर आज्ञा पाकर बाहर सेवा करने के लिए चले जाते अथवा प्रेम की बाढ़ में विहल होके उच्च आत्मिक रँगों में जीवन मुक्ति का रस लेते। इन प्रेमियों में एक भाई जय सिंह जी थे। आप बृजभाषा के प्रवीण कवि थे और वहाँ अपनी प्रवीणता का मूल्याँकन करवाने गए थे। सच्चे गुरू जी अनन्त छवि को देखकर मोहित हो गये। इतने मोहित हुए कि कविता का मूल्याँकन तो भूल गया, कविता के उच्चादर्श की प्राप्ति हुई। एक दिन एक सिक्ख ने कहा, हे गुरू जी ! जयसिंह जी हमेशा मग्न रहते हैं इन्हें युद्धों में साथ चलने की आज्ञा दी जाए। गुरू साहिब जी ने कहा कि इस गोट को प्रेम की चौनर में विरह के घर में परिपक्व होना है। दूसरी प्रातः गुरू जी ने आज्ञा दी– जयसिंघ ! अपने देश में परिवार में जाकर रहो और वहाँ ध्यान मग्न रहो। गुरू जी की आज्ञा, पर हाय ! कठोर आज्ञा ! प्राण से बिछुड़ने वाली आज्ञा, अपने से दूर होने की आज्ञा को आपने सिर माथे पर रखा और घर पहुँचे। दो तीन वर्ष जिस विरह को झेला वह या तो भाई जी जानते थे या फिर गुरू जी। जब गुरू जी का बुलावा आया तो गुरू जी के दर्शन करके तृप्त हुए। उन्होंने वियोग में जो कविताएँ काफियाँ और छँद पँजाबी भाषा में रचे थे वह बहुत ही विरह भरे थे। पर अब वे समय की घूल में खो चुके हैं।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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