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47. बजरूड़ का उद्धार

सतलुज के पार बजरूड़ नामक एक गाँव था। इस गाँव के अन्दर एक छोटी सी गढ़ी थी। गूजर तथा रँगघड़ जाति के लोग इस गाँव में रहते थे और लूटमार किया करते थे। यह गढ़ी इन्हें इस काम के लिए काफी सहायता करती थी। जब कभी कोई एकाधा गाँव मिलकर इनसे बदला लेने के लिए चढ़कर आ जाता, तब ये गढ़ी में जाकर युद्ध करते और गढ़ी के ऊपर से दूर-दूर तक तोपों की मार किया करते। इन्होंने एक बार सिक्खों की एक संगत को भी लूटा। लूट जाने के बाद जब सिक्ख श्री आनंदपुर साहिब जी पहुँचे और वहाँ पर गुरू जी को पता चला तो आपने दो-तीन दिन तक कुछ नहीं कहा। फिर अचानक चढ़ाई कर दी और अब की बार पैदल खालसा साथ ले लिया। नोह गाँव पर तो घुड़सवार सेना चढ़कर गई, परन्तु बजरूढ़ पर पैदल। मानों यहाँ पर पैदल खालासा की शूरवीरता की परीक्षा थी। जब नदी पार जाकर डेरा डाला तो पँक्ति बनाकर बजरूढ़ की और झुके। लुटेरों ने देखा कि खालसा आ गया है और उन्हें दण्ड देने के लिए आया है। शीघ्रता से तोपें लेकर घरों के ऊप चढ़ गए और ऊपर से ही लगे मार करने। इनका उद्देश्य था कि सिंघ गाँव के नजदीक न आ सकें। कुछ जवान गढ़ी पर जा चढ़े और उसकी ऊँचाई से गोलियाँ चलाने लगे। इनकी गोली दूर-दूर तक पहुँचती थी। इसी तरह कुछ मनचले रँघड़ आगे से रूकावट डालने के लिए गाँव के द्वार के बाहर आ खड़े हुए और तोपें दागने लगे। रँघड़ों के युद्ध का यह ढँग बड़ी चतुराई वाला था, पर खालसा भी कोई कम नहीं था, गढ़ी की ओर से आ रही गोली का, जहाँ तक सँभव होता, बचाव करते और यदि कोई गोली लग भी जाती तो डरने के स्थान पर गुस्से में आकर और गोलियाँ चलाते, जिनके निशाने आगे से रोकने वाले रँघड़ों पर ठीक बैठते, पर वे भी तो डटे खड़े थे। इस बराबर के युद्ध में अपने सेनापति का सँकेत पाकर खालसा ने अचानक धावा बोल दिया और गढ़ी की ओर से आ रही गोली की तनिक परवाह नहीं की। जिसे गोली लगी वह गिर गया, शेष आगे बढ़ते चले गए और इस प्रकार शत्रु के सिर पर पहुँचकर हाथो-हाथ धमासान का युद्ध मचा दिया। इसे सहन न करते हुए कुछ घरों में जा घुसे और कुछ गढ़ी में जा घुसे। अब सिक्खों ने उनके निशाने बाँधे और इस तरह गढ़ी के पास पहुँच गए। इस तरह चार घड़ी घमासान का युद्ध हुआ। जब सिंघ गढ़ी के द्वार पर जा पहुँचे और लगे दरवाजे को उड़ाने, तो गढ़ी के भीतर शत्रु ने समझ लिया कि सिक्ख गढ़ी के भीतर घुस आयेंगे और सबको कत्ल कर देंगे। तब उन्होंने ऊपर से ही सँधि का झण्डा फहरा दिया और गोली चलाना बन्द कर दिया। खालसा ने भी अब गोलीबारी बँद कर दी। फिर गढ़ी में से सबको निकालकर गुरू जी के आगे प्रस्तुत किया गया। आपने आज्ञा दी कि सारे एक जगह शस्त्र इक्टठे कर दो और अपने हाथों से गढ़ी को गिरा दो और लूटमार का माल वापिस कर दो और आगे से कान पकड़ो। यदि फिर कभी ऐसा काम किया तो इससे अधिक दण्ड दिया जायेगा। उन्होंने सब कुछ मान लिया। इस प्रकार जालिम लुटेरों के गाँव पर विजय प्राप्त करके खालसा का पैदल दल श्री आनंदपुर साहिब वापिस आ गया। इस तरह की खालसा की विजयों से उनका रौब सब और छा गया। संगत अब बिना किसी कष्ट से आने जाने लगी थी। आसपास की कमजोर प्रजा भी सुख से रहने लगी थी। इस तरह के जो युद्ध थे, वे कर्म के लिए थे। खालसा प्रजा के लिए न्याय तथा सुख के लिए कार्य कर रहा था।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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