43. लँगर की परीक्षा
श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के दरबार में संगतों का सदैव ताँता लगा रहता था। दूर से
दर्शनार्थ आई संगत के लिए कई स्थानों पर लँगर तथा अन्य सुख सुविधाएँ जुटाई जाती
थीं। इस कार्य के लिए कई धनाढय श्रद्धालू सिक्खों ने अपनी व्यक्तिगत लँगर सेवाएँ
प्रस्तुत कर रखी थीं। कुछ धनाढय अपना नाम कमाने के लिए भोजन बहुत ही उत्तम और
स्वादिष्ट तैयार करते थे और संगतों को अपनी और आकर्षित करने के लिए सेवा में कोई
चूक नहीं रहने देते थे। इस प्रकार गुरू संगत बहुत प्रसन्न थी और वह कुछ विशेष धनाढयों
की स्तुति भी करती थी। गुरू जी के दरबार में प्रायः इस बात की चर्चा भी बहुत होने
लगी थी कि अमुक लँगर अति प्रशँसनीय कार्य कर रहे हैं। एक दिन गुरू जी के दिल में
विचार आया कि क्यों न इन लँगरों की परीक्षा ली जाए कि वह वास्तव में निष्काम
सेवा-भाव रखते हैं अथवा केवल कीर्ति अथवा यश अर्जित करने के विचार से संगत को लुभा
रहे हैं। अतः आपने एक दिन लगभग अर्धरात्रि के समय वेशभूषा किसानों वाली धारण करके
बारी-बारी सभी धनाढय व्यक्तियों के लँगरों में गये और बहुत विनम्र भाव से आग्रह किया
कि मैं दूर प्रदेश से आया हूँ। मुझे देर हो गई है, भूखा हूँ कृप्या भोजन करा दें।
सभी ने क्रमशः एक ही उत्तर दिया– खाद्य सामाग्री समाप्त हो गई है, कृप्या सुबह पधारें,
अवश्य ही सेवा की जाएगी। अन्त में गुरू जी "भाई नन्दलाल गोया जी" के लँगर में गये।
वह भी सोने जा रहे थे किन्तु किसान की विनती सुनते ही सर्तक हुए और उसे बहुत
स्नेहपूर्वक बैठाया और कहा– आप थोड़ी सी प्रतीक्षा करें, मैं अभी आपके लिए भोजन
तैयार किये देता हूँ और वे बचा-खुचा भोजन गर्म करने लगे और जो प्रातःकाल के लिए रसद
रखी हुई थी उसमें से रोटियाँ (प्रशादे) तैयार करने लगे। कुछ ही देर में भोजन तैयार
हो गया। किसान को बहुत आदरभाव से भरपेट भोजन कराया और उसको सन्तुष्ट करके विदा किया।
अगले दिन गुरू जी ने रात की घटना अपने दरबार में समस्त संगत को सुनाई कि कौन किस मन
से सेवा कर रहा है। समस्त लँगरों में से भाई नन्दलाल जी के लंगर को उत्तम घोषित किया
गया।