42. गुरू जी का विद्या दरबार
श्री गुरू गोबिन्द सिघ जी सन्त और सिपाही होने के साथ-साथ विद्या प्रेमी भी थे। वह
स्वयँ तीन भाषाओं में कविता लिखते थे। पँजाबी उनकी मातृभाषा थी, हिन्दी उस समय
साहित्य रचना में प्रयोग होने वाली सर्वाधिक विकसित भाषा थी। फारसी उस समय सरकारी
भाषा होने के कारण मान्यता प्राप्त थी। अतः आपने इन तीनों भाषाओं का अपने काव्य में
खुलकर प्रयोग किया। आप कवियों, गुणियों, पण्डितों को अपने दरबार में आमँत्रित करते
और उनकी श्रेष्ठ रचनाओं पर पुरस्कृत करते रहते थे, जिस कारण दूर-दूर से आपके दरबार
में विद्वान आने लगे। कुछ कवि तो गुरू जी के आश्रय में स्थाई तौर पर रहने लगे थे।
कुछ थोड़े समय के लिए आकर श्री आनंदपुर साहिब में रहते और कुछ गुरू इच्छा के अनुरूप
ज्ञान का आदान-प्रदान करते। गुरू जी का विद्या दरबार इनना विख्यात हो गया कि कुछ
कविगण केवल तीर्थ की तरह श्री आनंदुपर साहिब में आकर ज्ञान-चर्चा करके लौट जाते।
तात्पर्य यह कि गुरू दरबार में स्थायी तौर पर रहने वाले कवियों के अतिरिक्त भी वहाँ
का कवियो का निरन्तर आवागमन बना रहता। गुरू जी के दरबार में काव्य गोष्ठियों का
आयोजन प्रायः होता रहता था। एक बार गुरू जी के दरबार में चन्दन नामक कवि उपस्थित
हुआ। उसे अपनी रचनओं पर अभिमान था। उसका विचार था कि उसकी रचना की कोई ठीक से
व्याखया नहीं कर सकेगा। उसने सवैंया पढ़ा और चुनौती दी कि इसके अर्थ करने वाले से
मैं पराजय मान लूँगा। इस सवैंये को सुनकर गुरू जी ने कहा यह तो कुछ भी नहीं है इससे
अच्छे तो हमारे धासिये लिख लेते हैं। चन्दन कवि ने प्रस्ताव रखा, ठीक है, आप मेरे
इस स्वैये को किसी घासिये से अर्थ करवाकर दिखा दें। तभी गुरू जी ने धन्ना सिंघ जी
को बुला भेजा जो उस समय घास खोदकर ला रहा था। धन्ना सिंघ जी ने घास की गाँठ सिर से
उतारी और सीधा दरबार साहिब में उपस्थित हुआ। तब चन्दन कवि ने आदेश पाकर वही सवैया
पुनः उच्चारण किया:
नवसात तिये, नवसात किये, नवसात पिये नवसात पियाए ।।
नवसात रचे नवसात बचे, नवसात पया पहि रूपक पाए ।।
जीत कला नवसातन की, नवसातन के भुखर अंचर छाय ।।
मानुंह मेघ के मंडल में, कवि चंदन चंद कलेवर छाए ।।
धन्ना सिंघ जी ने दो बार सवैंये को ध्यान से सुना और कहा इसमें
कोई आध्यात्मिक ज्ञान अथवा किसी आदर्श की बात तो है ही नहीं केवल नो और सात की गिनती
है, जिसका कुछ जोड़ सोलह है। जिसकी बार-बार पुर्नावृति की जा रही है। इसके अर्थ भी
साधारण से ही हैं। नव, सात लिये भाव नौ और सात यानि सोलह वर्ष की पत्नी, सोलह
श्रँगार करके पति की प्रतिक्षा में है, जो सोलह माह के पश्चात परदेश से घर लौट रहा
है। सोलह खाने वाली शतरँज की बाजी लगाई गई। सोलह दाँव लगाने की शर्त लगाई गई। सोलवें
दाँव में पति विजयी हो गया। इस प्रकार सोलह कला वाली स्त्री ने पराजित होकर अपना
मुख चुन्हरी में छिपा लिया। ऐसा एहसास हुआ जैसे बादलों में चन्द्रमा लुका-छिपी कर
रहा हो। इतनी सहजता में अर्थ एक गुरू के घासिये से सुनकर चन्दन कवि का अभिमान जाता
रहा। अब धन्ना सिंघ जी की बारी थी। उसने सवैंया पढ़ा:
मीन मरै जल के परसे कबहूं न मरै पर पावक पाए ।।
हाथी मरै मद के परसे कबहूं न मरै ताप के आए ।।
तीय मरै पीय के परसे कबहूं न मरै परदेश सिधाए ।।
गूढ़ मैं बात कही जिजरात विचार सकै न बिना चित लाए ।।
काउल मरै रवि के परसे कबहूं न मरै ससि की छवि पाए ।।
मित्र मरै मित के मिलिके कबहूं न मरै जंबि दूर सियाए ।।
सिंह मरै जब मास मिलै कबहूं न मरै जब हाथ न आए ।।
गूंढ़ मैं बात कही दिगराज विचार सकै न बिना चित लाए ।।
धन्ना सिंघ जी के इस सवैंये का अर्थ चन्दन को नहीं सूझा। लज्जित
होकर पराजय स्वीकार कर ली। वह गुरू जी के सम्मुख हाथ जोड़कर विनती करने लगा, क्षमा
करें। मैं मिथ्या अभिमान में आ गया था। तब गुरू जी ने धन्ना सिंघ को आदेश दिया अब
लगे हाथों, चन्दन को अर्थ भी बता डालें। तब धन्ना सिंघ जी ने कहा– इसमें अर्थ
बिल्कुल स्पष्ट ही हैं, केवल बात अर्ध विराम के प्रयोग को समझने मात्र का है। सवैंये
में न शब्द को अर्ध विराम से पहले पढ़ना है, बात बन जाएगी।
मीन मरै जल के परसे कबहू न, मरै पर पावक पाए ।।
चन्दन कवि ने ऐसा ही किया अर्थ बिल्कुल सीधे-साधे और स्पष्ट थे
केवल अर्ध विराम के कारण मामला उलझा हुआ था। जिससे अर्थ के अनर्थ हो रहे थे।