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37. श्री पाउँटा साहिब जी से श्री आनंदपुर साहिब जी प्रस्थान

भँगाणी के युद्ध में विजयी होने के पश्चात श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी वापिस श्री आनंदपुर साहिब जी के लिए प्रवास की तैयारियाँ करने लगे। नाहन नरेश ने गुरू जी को रोकना चाहा किन्तु वे नहीं रूके। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे और अधिक समय श्री पाउँटा साहिब जी में रहेंगे, तो श्री आनंदपुर का नगर उजड़ जायेगा। यह सच भी था। अतः शीर्घ ही गुरू जी सपरिवार श्री पाउँटा साहिब से चल दिये। वास्तव में गुरू जी के श्री आनंदपुर साहिब जी से श्री पाउँटा साहिब आ जाने पर वहाँ की रौनक पूरी जाती रही थी।

रायपुर की रानी

श्री आनंदपुर जाते हुए आप रास्ते में कई रमणीक स्थानों पर पड़ाव करते हुए आगे बढ़ रहे थे। जब आप रायपुर की जागीर में पहुँचे तो वहाँ का जागीरदार भय के कारण भाग गया। उसे भय था कि भीमचन्द की सहायता की अवज्ञा में कहीं गुरू जी प्रतिशोध न लें। परन्तु उसकी रानी बहुत विवेकशील थी। उसने गुरू जी की बहुत महिमा सुन रखी थी कि वह बहुत उदारचित हैं। अतः उसने गुरू जी की कृपा के पात्र बनने की एक योजना बनाई। जैसे ही गुरू जी के अन्य योद्धा वहाँ से गुजरने लगे। वह फूलमालाएँ लेकर स्वागत के लिए उपस्थित हुई और विनती करने लगी कि आज आप हमारे यहा विश्राम करें और उसने अपने बाग में गुरू जी को ठहराया और सभी सैनिकों के लिए भोजन की व्यवस्था की। गुरू जी को एक विशेष कक्ष में भोजन कराया गया। भोजन के उपरान्त अपने बेटे को जो अभी लगभग दस वर्ष की आयु का था, गुरू चरणों मे नतमस्तक होकर प्रणाम करने को कहा और साथ में रूपयों की एक थैली भी भेंट की। गुरू जी ने प्रसन्न हुए और बेटे का आशीष दी और कहा– गुरू घर की कृपा के पात्र तुम तभी बन सकते हो जब हमारे आदेशों का पालन करोगे। इस पर रानी ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आप हुक्म तो कीजिए। गुरू जी ने कहा– लड़के को केशधारी बनाओ, शस्त्र विद्या सिखाओ और तम्बाकू का प्रयोग नहीं करना होगा। गुरू जी ने रानी को शस्त्र दिये थे, जो रानी ने गुरू प्रसाद के रूप में स्वीकार कर लिए और उनकी प्रतिदिन सेवा करने लगी। जब उसे कोई कठिनाई होती तो शस्त्रों को प्रणाम करके गुरू चरणों में अराधना कर लेती, जिससे उसकी समस्याओं का समाधान हो जाता।

नाडु शाह

गुरूदेव जी पड़ाव करते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे कि रास्ते में घग्घर नदी के इस पार अपना शिविर लगा दिया और अगली प्रातकाल आगे जाने का कार्यक्रम बनाया। वहीं नाडु शाह के खेत थे, वह श्रद्धावश गुरू जी से प्रार्थना करने लगा कि मेरे धन्य भाग हैं जो आप सहज में ही मुझ गरीब के यहाँ पधारे हैं। उसने अपने गृह से गुरूदेव जी की भोजन की व्यवस्था की और बहुत प्रेम से टहल सेवा की। गुरू जी उसकी सेवा से प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि समय आयेगा जब तेरे नाम से यह स्थान प्रसिद्धि प्राप्त करेगा और यहाँ दिन रात भण्डारे चलते रहेंगे।

श्री आनंदपुर साहिब जी में प्रवेश

श्री पाउँटा साहिब जी से प्रस्थान करने के पश्चात गुरू जी धीरे-धीरे अपने काफिले के साथ अक्टूबर, 1687 को श्री आनंदपुर साहिब जी में प्रवेश कर गये। वहाँ श्री आनंदगढ के सैनिकों और स्थानीय संगत ने आपकी अगवाई की और भव्य स्वागत के लिए समारोह का आयोजन किया। गुरू जी लगभग तीन वर्ष पश्चात अपनी नगरी श्री आनंदपुर साहिब जी पुनः पधारे थे। इस अन्तराल में यहाँ की रौनक समाप्त सी हो गई थी। सत्ताधारियों के भय से कई परिवार श्री आनंदपुर साहिब त्यागकर चले गये थे। ऐसा प्रतीत होता था कि पर्वतीय नरेशों ने जनसाधारण को डराया घमकाया हो। गुरू जी के वापिस आ जाने पर श्री आनंदपुर साहिब जी में एक बार फिर चहलपहल हो गई थी। नये-नये भवनों का निर्माण प्रारम्भ हो गया। गुरू जी को आभास हो गया था कि आगामी युद्धों के लिए रणक्षेत्र श्री आनंदपुर साहिब जी का ही स्थान बनेगा। अतः आपने दीर्द्यगामी योजनाएँ बनाई जिसके अर्न्तगत श्री आनंदपुर साहिब नगर को सुरक्षित रखने के लिए आक्रमणकारियों की रोकथाम रास्ते में ही हो, वे श्री आनंदपुर साहिब न पहुँच पायें, कुछ नये दूर्ग बनाने का कार्यक्रम बनाया। श्री पाउँटा साहिब जी की विजय से गुरू जी के सिक्खों और सेवकों में एक नया उत्साह भर गया। वे प्रत्येक क्षण युद्ध अभ्यास में गुजारने लगे। विजय के समाचार ने चारों और हर्षउल्लास का वातावरण उत्पन्न कर दिया। अब दूर-दूर से सिक्ख संगत अपने युवा बेटों को गुरू जी की सेना में भर्ती होने के लिए भेजने लगीं। इस प्रकार गुरू जी के पास बहुत बड़ी सँख्या शूरवीरों की हो गई। सँख्या की दृष्टि से जैसे ही सैनिक अधिक हुए गुरू जी ने उनके लिए अच्छे वस्त्र, भोजन, कपड़े और निवास पर ध्यान केन्द्रित किया। आपने अपनी नई सेना का पुर्नगठन किया जिसके अर्न्तगत छः दल बनाये और उनके लिए अलग-अलग घावनियाँ तैयार करवाई। बाद में इन्हीं छावनियों को दुर्ग का रूप दे दिया जिससे सेना और अस्त्र-शस्त्र सदैव सुरक्षित रखे जा सके। छः दुर्गों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं:

1. निरमोह गढ़
2. हौलगढ़
3. लोहगढ़
4. फतेहगढ़
5. केसगढ़
6. आनंदगढ़

आप स्वयँ आनंदगढ में निवास रखने लगे क्योंकि आनंदगढ सबसे अधिक सुरक्षित और केन्द्र में था। आनंदपुर में शस्त्र निर्माण का कार्य पहले से ही चल रहा था, जिसे गुरू जी ने तीव्र गति से करने का आदेश दिया। इस कार्य के लिए दूर-दूर से कारीगर बुलाये गये, जिससे आवश्यकतानुसार आधुनिक शस्त्रों का निर्माण किया जा सके और आत्मनिर्भर हो सकें।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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