30. नरेश फतेहशाह की लड़की के विवाह का
निमन्त्रण
गढ़वाल श्रीनगर के नरेश ने गुरू जी को अपनी लड़की के विवाह पर आमँत्रित किया। गुरू जी
को भीमचन्द के मन के खोट पर आभास था, अतः गुरू जी ने स्वयँ वहाँ पर आना उचित नहीं
समझा और अपने दीवान नन्दचन्द के हाथ बेटी के लिए अनेक मूल्यवान उपहार फतेहशाह के
पास भिजवा दिये। राजा फतेहशाह ने सिक्खों की शूरवीर टुकड़ी को सम्मान से नगर से बाहर
एक अच्छे स्थान पर ठहराया। गुरू जी द्वारा भेजे गये उपहारों को जब सबके देखने के
लिए रखा गया तो भीमचन्द को गुरू जी के उपहार बहुत अखरे। गुरू जी को वह अपना शत्रु
मानने लग गया था और अपनी होने वाली पुत्रवधू के लिए शत्रु द्वारा भेजे गये लाखों के
उपहार उसे स्वीकार नहीं थे। वह यह भी नहीं चाहता था उसका समधी फतेहशाह गुरू जी से
मैत्री रखे। अतः रँग में भँग डालने के लिए उसने वहाँ भी शत्रुता के बीज बो दिये।
फतेहशाह को उसने स्पष्ट कह दिया कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी उसके शत्रु हैं। वह
अपने शत्रु के मित्र के घर अपने लड़के की शादी नहीं करेगा। इस पर फतेहशाह घबरा गये
और उन उपहारों को लेना चाहकर भी खुले में स्वीकार नहीं कर पाये। नंदचँद को स्थिति
में विस्फोट की गँध मिली। अतः उसने समय रहते अपना सामान एकत्र करके वहाँ से चले जाने
में ही अपनी कुशलता समझी और वह वापिस चल दिये। भीमचन्द की सेना ने तम्बोल (उपहार आदि)
लूटने का दुस्साहस किया किन्तु दीवान नंदचँद ने अपने ऐसे करारे हाथ दिखाए कि वह अपनी
जान बचाकर भागे। श्री पाउँटा साहिब जी पहुचँकर गुरू जी को सारी स्थिति से अवगत कराया
गया। उधर फतेहशाह की लड़की का विवाह हो जाने के उपरान्त समस्त पर्वतीय नरेशों ने,
जिनमें विशेषकर चम्बा, सुकेत, मण्डी जसवाल, हँडूर भँबोर, कुटलोड, नुरपुर, किश्तवार,
नदौण, कहिलूर, गढ़वाल, दड़वाल, चँदौर (इनमें स ज्यादातर तो उन्हीं लोगों के नाती-पौते
थे, जिन्हें श्री गुरू हरगोबिन्द साहिब जी ने ग्वालियर के किले से मुक्त करवाया था,
अकृघन कहीं के) थें, को एकत्रित किया और सभा बुलाई। इस सभा में यह प्रस्ताव पारित
किया गया और गुरू जी को लिखकर भेजा गया। वे उनकी अधीनता स्वीकार कर लें। पत्र में यह लिखा था: हमने अब तक आपको कुछ कहना ठीक नहीं समझा
क्योंकि आप श्री गुरू नानक देव साहिब जी की गद्दी पर विराजमान हो, परन्तु आपने उनकी
सभी परम्पराएँ बदल दी हैं। अतः हमारे से आपका राजसी आचरण और ज्यादा सहन करना कठिन
हो गया है। यदि आप सुखी रहना चाहते हो तो आज्ञाकारी प्रजा की भाँति रहें। पिछले
कृत्यों की क्षमा माँगें और आगे से हमारे आदेश का पालन करने का प्रण करें। यदि ऐसा
नही करना तो श्री आनंदपुर साहिब छोड़कर चले जाएं। यदि स्थान छोड़ने के लिए तैयार नहीं
तो युद्ध करके हम यह स्थान छुड़वा लेंगे। इस पत्र के उत्तर में गुरू जी ने संदेश भेजा:
हम किसी की हथियाई जमीन पर नहीं रहते। हमारे पिता श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी ने
इस स्थान का मूल्य देकर खरीदा था। हम किसी की प्रजा नहीं। युद्ध की धमकियाँ व्यर्थ
हैं। यदि तुम्हें युद्ध करने का बहुत ही चाव है तो हम भी उसके लिए तैयार हैं। समस्त
स्थिति को ध्यान में रखते हुए गुरू जी ने युद्ध के लिए तैयारियाँ आरम्भ कर दी और
आक्रमण का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए कटिबद्ध हुए। रणनीति को ध्यान में रखते हुए
उन्होंन श्री पाउँटा साहिब नगर के उत्तर की दिशा में 6 कोस की दूरी पर भँगाणी नामक
स्थान को सामरिक दृष्टि से युद्ध के लिए उपयुक्त जानकर मोर्चे बनाने लगे। यही वह
स्थान है, जहाँ से प्राचीनकाल में नाहन और देहरादून का सड़क से संबंध स्थापित होता
था ओर जहाँ से किश्तियों द्वारा यमुना पार की जाती थी। यमुना के उस पार चूहड़पुर
नामक गाँव है।