27. रामराय से भेंट
सातवें गुरू श्री गुरू हरिराय साहिब जी ने अपने जयेष्ठ पुत्र रामराय को गुरूघर से
बेदखल कर दिया था क्योंकि उसने औरँगजेब के दरबार में गुरूबाणी को गलत तरीके से
उच्चारण किया था। औरँगजेब न उन्हें जागीर भेंट की, जो बाद में दुहरादून के नाम से
प्रसिद्ध हुआ। उन्हीं दिनों गढ़वाल के राजा फतेहशाह ने भी पाँच गाँव की भूमि उन्हें
अपनी और से भेंट की। इसलिए राम राय वहीं डेरा बनाकर स्थाई रूप में रहने लगे। यह
स्थान श्री पाउँटा साहिब से केवल 20 कोस पर है। जब राम राय को श्री गुरू गोबिन्द
सिंघ जी के नाहन आने और श्री पाँउटा साहिब जी बसाने की सूचना मिली तो उनके दिल में
गुरू जी से भेंट करने की उत्सुकता उत्पन्न हुई। वास्तव में वह अपने मसँदों से तँग
आये हुए थे क्योंकि मसँद उनकी आज्ञा के विरूद्ध मनमानी करते थे। मसँदों के विपरीत
आचरण के कारण वह अब पीड़ित थे क्योंकि जिन मसँदों की सहायता से उन्होंने अपने आश्रम
का कारोबार चलाया हुआ था वे ही उनके लिए घातक सिद्ध हो रहे थे। रामराय जी की
वृद्धावस्था के कारण वे अब अपने आपको डेरे का स्वामी समझने लगे थे और माया में लूट
मचा रखी थी। रामराय ने गुरू जी को सन्देश भेजा कि व उनसे गुप्त रूप से मिलना चाहते
हैं। गुरू जी ने उन्हें बुला लिया और यमुना नदी के बीच पाट में एक विशेष नाव में
भेंट हुई। राम राय जी आयु में बड़े थे। किन्तु रिश्ते में गुरू जी उनके चाचा लगते
थे। मिलने के समय राम राय ने गुरू जी को शीश झुकाकर नम्रतापूर्वक प्रणाम किया और
विनती की कि मेरी पिछली भूलें क्षमा की जाएँ और उनकी मृत्यु के पश्चात उनके परिवार
की रक्षा की जाये। गुरू जी ने वचन दिया ऐसा ही होगा।