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22. भीमचन्द का असफल छल

राजा भीमचँद गुरू घर की शान देखकर बौखला गया। वह श्री आनंदपुर साहिब जी टिक नहीं पाया। जल्दी ही आज्ञा लेकर वापिस कहिलूर पहुँचा। अब उसको एक ही धुन सवार हो गई कि किस प्रकार गुरू जी से ये अनमोल वस्तुएँ हथियाई जाएँ। उसे इस कार्य के लिए एक बहाना सूझा। उसके राजकुमार अजमेरचँद की सगाई जिला गढ़वाल के राजा फतेहशाह की राजकुमारी के साथ होने वाली थी। इस शुभ अवसर पर समस्त पर्वतीय नरेशों को भी आमँत्रित किया गया था। भीमचँद ने अपने वकील पुरोहित परमानँद को गुरू जी के पास यह कहकर भेज दिया कि सगाई के अवसर पर यदि प्रसादी हाथी तथा काबली शमियाना इत्यादि वस्तुएँ उधार मिल जाए तो भीमचँद की अन्य राजाओं के समक्ष शान बन जाएगी। गुरू जी अवश्य ही अल्प आयु के थे किन्तु सब बात समझते थे। उन्होंने परमानँद की चिकनी चुपड़ी बातों को भाँप लिया कि उधार का तो बहाना है। असल में तो यह पहाड़ी राजा हमें छलना चाहता है। उत्तर में गुरू जी ने परमानँद को कह दिया कि हाथी आदि वस्तुएँ तो श्रद्धालूओं द्वारा अपने गुरू को निजी भेंट दी हुई होती हैं। अतः यह गुरू मर्यादा के विरूद्ध है कि प्रेमपूर्वक भेंट की गई किसी भी वस्तु को उनकी आज्ञा के बिना आगे किसी को सार्वजनिक उपयोग के लिए दे दी जाएँ। यह बात भेंट का निरादर भी होगी। भीमचँद की छलकपट वाली चाल असफल रही। इस पर उसके साले राजा केसरीचँद जसवालिया ने योजना बनाई कि हम यह वस्तुएँ गुरू जी को धमकाकर प्राप्त कर लाएँगे। अतः वह कुछ चुने हुए राजनीतिज्ञ अथवा वकील साथ में ले गया। पहले तो वे सब गुरू जी के समक्ष चापलूसीपूर्ण व्यवहार करते रहे और आग्रह करते रहे कि वे वस्तुएँ हमें कुछ दिनों के लिए उधार दे दी जाएँ परन्तु गुरू जी के साफ इन्कार पर वे गुरू जी पर रौब डालने लगे और अशिष्टता पर उतर आये। तभी गुरू जी का सँकेत पाते ही सिक्खों ने उन्हें अभ्रदता के कारण धक्के मारकर श्री आनंदपुर साहिब जी से बाहर भगा दिया। अब स्थिति विस्फोटक हो गई थी। इस प्रकार दोनों पक्षों में तनाव प्रारम्भ हो गया और राजा भीमचँद गुरू जी को अपना शत्रु मानने लगा। राजा भीमचँद ने पर्वतीय नरेशों की सभी बुलाई। उनकी सलाह पूछी कि गुरू जी के विरूद्ध अगला कदम क्या उठाया जाये। समस्त पर्वतीय राजाओं ने मिलकर परामर्श दिया कि अभी समय उपयुक्त नहीं है। सर्वप्रथम राजकुमार का विवाह सम्पन्न होने दो फिर मिलकर गोबिन्द राय पर आक्रमण कर देंगे, जिससे सम्राट की दृष्टि में भी सम्मान प्राप्त होगा। अभी सोते शेर को जगाना ठीक नहीं। कहीं सीधे युद्ध में राजकुकार के विवाह में विध्न उत्पन्न न हो जाए। उपरोक्त घटनाक्रम को देखते हुए सिक्ख महसूस कर रहे थे कि किसी भी दिन राजा भीमचँद उन पर आक्रमण कर सकता है। माता गुजरी जी भी ऐसा ही मानती थी किन्तु वह चाहती थी कि किसी भी प्रकार सशस्त्र युद्ध को टाला जाना चाहिए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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