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18. रणजीत नगाड़ा

श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी की सेना के वरिष्ठ अधिकारी नन्दचन्द ने एक दिन गुरू जी से अनुरोध किया कि हे गुरू जी ! हमें सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए एक नगाड़ा (एक विशेष प्रकार का ढोल) बनाना चाहिए। बिना नगाड़ा बजाए सेना का प्रशिक्षण अधूरा रहता है। बस फिर क्या था तुरन्त गुरू जी ने आदेश दिया कि आकार में बड़े से बड़ा नगाड़ा बनवाओ और इसके अतिरिक्त शिकार खेलते समय वनों में जँगली पशुओं को भयभीत करने के लिए कुछ छोटे आकार के नगाड़े बनवाओ जो साथ लिए जा सके और शिकार करने में सहायक सिद्ध हों। आदेश के मिलते ही कुशल कारीगरों द्वारा एक बहुत ही बड़े आकार का नगाड़ा बनाया गया जिसकी गूँज और कर्कश ध्वनि गगनचूम्बी थी। इसे देखकर गुरू जी ने प्रसन्नता व्यक्त की और इस नगाड़े का नाम रणजीत नगारा रखा और इसे श्री आनंदगढ़ की एक विशेष ऊँची मीनार में स्थापित कर दिया गया। रणजीत नगाड़े को आवश्यकता अनुसार दिन में कई बार बजाया जाने लगा। जिससे आसपास के क्षेत्र दहल जाते। इस नये कार्य से कुछ मसंद खुश नहीं हुए अपितु कुछ आशँकाए प्रकट करने लगे। गुरू जी ने इन लोगों की बातों पर ध्यान नहीं दिया। परन्तु वे भविष्य में विपक्तियों की सम्भावना बताने लगे और वे लोग एकत्र होकर माता गुजरी जी के समक्ष प्रार्थना करने लगे कि गुरू जी अभी अल्पायु के हैं। इनकों इन बातों के परिणाम मालूम नहीं। सम्राट औरँगजेब पहले से ही हमारा शत्रु है तथा पर्वतीय नरेशों का भी कोई भरोसा नहीं। न जाने वे कब बदल जाएँ। वे पहले से ही हमारी सैन्य तैयारियों से असन्तुष्ट हैं। वे शक्ति सन्तुलन के भय से भी चिन्तित रहते हैं। अतः अब नगाड़ों पर हर समय की चोटें सुनकर कहीं हमारे विरोधी ही न बन जाएँ। यदि स्थानीय नरेशों से इन्हीं बातों से ठन जाती है तो वे हमारे विरूद्ध सम्राट से सहायता भी प्राप्त कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में हम क्या करेंगे ? जबकि एक तरफ समस्त देश की सैनिक शक्ति और दूसरी ओर हम जो केवल मुटठी भर स्वयँ सेवकों की सैन्य टुकड़ी रखे हुए हैं, प्रतिस्पर्धा के अनुपात में नगण्य है। ठीक इसी प्रकार एक तरफ राष्ट्रीय कोष है और हमारे पास केवल संगतों द्वारा श्रद्धावश भेंट किया गया सिमित धन, साधन। समस्त प्ररिस्थितियों को एक दुष्टि से आकलन कर लेना चाहिए। माता जी को इन बातों में तथ्य प्रतीत हुआ। उन्होंने मसँदों को आश्वासन दिया कि वह गोबिन्द राय जी को इन तथ्यों से अवगत करवायेंगी।

रात्रि के भोजन के उपरान्त अवकाश के समय माता गुजरी जी ने तथा दादी माँ नानकी जी ने गुरू जी को बहुत प्रेम से इस कड़वे सत्य से परिचित करवाया तो वह मुस्कुरा दिये और कहने लगे कि आज फिर कहीं मसँदों ने आपके मन में भ्रम उत्पन्न कर दिया है जैसा कि आप जानती हैं, जो भी होता है वह सर्वशक्तिमान परमात्मा के हुक्म से होता है फिर आप चिन्ता क्यों करती हैं ? हमें उस दिव्य ज्योति ने भेजा है और हमारा एक लक्ष्य है धर्म की स्थापना और इसके विपरीत दुष्टों का दमन करना। इस कार्य के लिए वह हमारे अंग-संग हैं केवल विश्वास की आवश्यकता है। इस तर्क को सुनकर माता जी गम्भीर हो गई और उन्होंने फिर कभी इस विषय पर चर्चा नहीं की।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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