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15. गुरू जी की त्रिवेणी

एक दिन गुरू गोबिन्द सिंघ जी अपने फुफेरे भाइयों तथा सेवकों के सँग भाला फैंकने का अभ्यास कर रहे थे तो गर्मी के कारण सभी को प्यास सताने लगी। किन्तु पानी का स्त्रोत कहीं दिखाई नहीं दिया। इस पर सँगोशाह ने कहाः यदि यहीं कहीं जलकुण्ड होता तो कितना अच्छा होता। भाई की इच्छा सुनकर गुरू जी बोलेः यह कोई बड़ी बात नहीं है। खोजने पर क्या नहीं मिल सकता। तभी आपने एक टीले पर सँकेत किया और कहाः यहाँ पानी अवश्य ही मिलेगा। गुरू जी ने अपने भाले को सम्पूर्ण जोर से धरती पर दे मारा और कहा– इसे निकालो, यहाँ से तुम्हारी प्यास बुझेगी। सभी ने बारी-बारी भाला उखाड़ने की चेष्टा की परन्तु असफल रहे। तदपश्चात गुरू जी ने स्वयँ ही घोड़े पर बैठे-बैठे उसे उखाड़ा। उस भाले के धरती से बाहर आते ही वहाँ से एक मीठे जल की धारा बह निकली। यह देखकर सभी अति प्रसन्न हुए और सभी ने प्यास बुझाई। किन्तु गुलाब राय के मन में एक बात आईः कि यदि मैं यह भाला उखाड़ कर दिखाता तो चश्में का श्रेय मुझे मिलना था। तभी गुरू जी ने पुनः कुछ दुरी पर भाला धरती पर फैंका। और हुक्म कियाः गुलाबराय ! इसे उखाड़ लाओ। उसने आदेश पाते ही समस्त बल लगा दिया किन्तु भाला बाहर नहीं खींचा जा सका। अन्त में फिर से भाला गुरू जी को ही निकालना पड़ा। भाला जैसे ही धरती से बाहर आया वहाँ से भी पानी का फव्वारा फूट पड़ा। यह देखकर गुलाबराय मन ही मन बहुत शर्मिन्दा हुआ। किन्तु वह आग्रह करने लगाः कि हमारे पास दो धाराएँ हैं। यदि एक धारा और उत्पन्न हो जाए तो त्रिवेणी ही बन जाए। उसकी यह मँशा देखकर गुरू जी ने एक अन्य स्थान पर भाला फैंका और उखाड़ा और वहाँ से भी एक पानी के चश्में की उत्पति हुई। इन तीनों जल धाराओं के सँगम के स्थान को गुरू जी की त्रिवेणी कहा जाने लगा।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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