13. मसँद प्रथा की समाप्ति
मसँद शब्द अरबी के मसनद से बना है जिसका भाव है– तकिया, गद्दी, तख्त अथवा सिँहासन।
अतः मसँदों का गुरू घर में अर्थ था वह मनुष्य जो गुरूगद्दी पर विराजमान गुरू जी का
प्रतिनिधि घोषित हुआ हो। जो गुरूसिक्ख संगत से आय का दसवंत यानि की आय का दसवाँ भाग
एकत्र करते और सिक्खी का प्रचार-प्रसार करते थे। उनको मसँद कहा जाता था। मसँद प्रथा
की शुरूआत चौथे गुरू श्री गुरू रामदास जी ने की थी। इन मसँदों ने उन दिनों सिक्खी
के प्रचार व प्रसार में विशेष योगदान दिया था परन्तु समय व्यतीत हाने के साथ-साथ कई
मसँद माया के जाल में फँसकर अमानत में खियानत करने लगे। पूजा के धन में से अपने लिए
सुखसुविधा के साधन एकत्र करने लगे। ये लोग विलासी हो जाने के कारण आलसी और नीच
प्रवृति के हो गये। ये लोग नहीं चाहते थे कि राज्य शक्ति अथवा स्थानीय प्रशासन से
अनबन हो या मतभेद उत्पन्न कर टकराव का कारण बने। परन्तु उधर गुरू जी सत्ताधारियों
की कुटिल नीति के विरोध में टक्कर लेने की तैयारियाँ कर रहे थे। अतः मसँदों ने ऐसा
प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया कि टक्कर लेने की राह न अपनाई जा सके, क्योंकि उनके
विचार से पहले ही नौवें गुरू श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी को शहीद करवा दिया था और
अब उसके साथ टक्कर लेना मृत्यु को निमँत्रण करना है। कुछ उदासीन वृति के सिक्ख इस
प्रकार के गलत प्रचार के प्रभाव में भी आ गये। ऐसे विचारों वाले कुछ सिक्खों ने माता
गुजरी जी को परामर्श दिया कि वह गुरू जी को समझाएँ कि सिक्खों को केवल नाम सिमरन
में ही लगाया जाए और मुगल शासन में किसी तरह शान्तिपूर्वक दिन काटे जाएँ। जब ऐसी
बातें गुरू जी तक पहुँची तो उन्होंने कहा कि इन मसँदों की आत्मा पूजा का धन खा-खाकर
मलीन हो चुकी है। ये आलसी और नकारा हो गये हैं। औरँगजेब चाहता है कि लोग गुलामी के
भाव में सिर झुकाकर चलें। हम चाहते हैं कि सिक्ख सिर उठाकर चलें। हमने तो सिक्खों
को इस योग्य बनाना है कि वे अत्याचारों के विरूद्ध दीवार बनकर खड़े हो जाएँ, गुलामी
की जँजीरों को तोड़ दें और इस देश की किस्मत के स्वयँ मालिक बनें। इन्हीं दिनों एक
मसँद जिसका नाम दुलचा था। गुरू जी के दर्शनों को कार सेवा की भेंट लेकर उपस्थित हुआ।
किन्तु उसके दिल में किशोर अवस्था वाले गुरू जी को देखकर सँशय उत्पन्न हुआ। वह
दुविधा में विश्वास-अविश्वास की लड़ाई लड़ने लगा। जिसके अर्न्तगत उसने समस्त भेंट गुरू
जी को भेंट नहीं की और एक स्वर्ण के कँगनों का जोड़ा अपनी पगड़ी में छिपा लिया। परन्तु
गुरू जी ने उसे स्मरण कराया कि उसे हमारे एक परम स्नेही सिक्ख ने कोई विशेष वस्तु
केवल हमारे लिए दी है जो उसने अभी तक नही सौंपी। उत्तर में मसँद दुलचा कहने लगा– नहीं
गुरू जी ! मैंने एक-एक वस्तु आपको समर्पित कर दी है। इस पर गुरू जी ने उसे पगड़ी
उतारने को कहा, जिसमें से कँगन निकल आये। यह कौतुक देखकर संगत आश्चर्य में पड़ गई और
दुलचा क्षमा याचना करने लगा। गुरू जी ने उसे क्षमा करते हुये कहा– आप लोग अब भ्रष्ट
हो चुके हो। अतः हमें अब पुरानी प्रथा समाप्त करके संगत के साथ सीधा सम्पर्क
स्थापित करना होगा और गुरू जी ने उसी दिन मसँद प्रथा समाप्त करने की घोषणा करवा दी।
गुरू जी ने वैसाखी के त्योहार पर संगत को आदेश दिया कि वे जो भी धन या कार सेवा गुरू
घर में देना चाहते हैं। वह अपने पास ही रखा करें और जब भी वह गुरू दर्शन को आयें तो
वह राशि गुरूघर में दे दिया करें। इस प्रकार मसँद प्रथा समाप्त हो गई।