12. श्री गुरू गोबिन्द सिंघ साहिब जी
का समय और परिस्थितियाँ
श्री गुरू तेग बहादर साहिब जी की शहीदी के बाद श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी को दो बातें
स्पष्ट हो चुकी थी। एक तो यह कि अशक्त व्यक्ति का कोई धर्म नहीं होता। दुनियाँ के
लालच अथवा मौत का डर देकर उन्हें फुसलाया जा सकता है। धर्म से पतित किया जा सकता
है। औरँगजेब के मजहबी दबाव के नीचे असँख्य हिन्दुओं का धर्म परिवर्तन कर लेना इस
बात का सबूत था। दूसरा अशक्त व्यक्तियों का धर्म पाखाण्डों, भ्रमों और स्वार्थवश की
गई चालाकियों, धोखा, फरेब और गरीब अनपढ़ जनता को खोखले रीति-रिवाजों के चक्रव्यूह
में फँसाने का नाम है। यह बात श्री आनंदपुर के पड़ोस में बसने वाले पहाड़ी राजाओं के
व्यवहार से सिद्ध हो चुकी थी। एक ओर तो वह जाति-पाति, छूत-छात, मूर्ति-पूजा के हक
में थे और दूसरी और औरँगजेब के पिटठू। जबकि श्री गुरू गोबिन्द जी जैसे स्वतन्त्र
विचारवान, केवल एक प्रभु को मानने वाले और जाति-पाति के भेदभाव से ऊपर उठकर भ्रमों
के जँजालों का खण्डन करने वाले व्यक्ति का धर्म इन्हें कहाँ भा सकता था। इस सँदर्भ
में पर्वतीय नरेशों ने विचार किया कि श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी के होते हुए उनकी
दाल नहीं गलेगी। साथ ही श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी तो औरँगजेब से टक्कर लेने की
तैयारियाँ कर रहे हैं। उनका साथ देना मुगलों को अपना शत्रु बना लेने की बात है। इन
कारणों से वे श्री गुरू गोबिन्द सिंघ जी से भय अनुभव करते हुए उन्हें श्री आनंदपुर
साहिब जी से निकालने की युक्तियाँ ढूँढने लगे। अतः वे व्यर्थ की छेड़खानी करने लगे।