11. भाई लक्खी शाह
श्री आनंदपुर साहिब जी में प्रतिदिन रौनक बढ़ रही थी। सिक्ख संगतें प्रतिदिन दूर-दूर
से दर्शनों को आने लगीं। एक दिन दिल्ली की संगत आई उनमें लुबाणा कबीले का सिक्ख भाई
लक्खी शाह वणजारा भी था। दीवान में जब आसा की वार की समाप्ति हुई, संगतों की तरफ से
भेंट प्रस्तुत की गई तब किशोर गोबिन्द राय जी ने भाई लक्खी शाह जी से पूछा– हे मेरे
परम स्नेही सिक्ख ! आपने किस प्रकार सतिगुरू जी की देह सम्भाली थी और दाह सँस्कार
किया था ? इस पर भाई लक्खी शाह जी ने द्रवित नेत्रों से समस्त घटना विस्तारपूर्वक
कह सुनाई कि किस प्रकार वे लोग योजनाबद्ध नियम से गुरू जी के पवित्र शरीर की सेवा
सम्भाल करने में सफल हुए। वह वृतान्त सभी पहले भी सुन चुके थे। किन्तु भाव आवेश में
सभी ने पुनः करूणामय गाथा सुनी। भाई लक्खी शाह ने कहा कि हम तो एक साधनमात्र थे
वास्तव में हमारी पग-पग पर प्रकृति ने सहायता की। पहले आँधी तूफान के रूप में फिर
सँतरियों को भ्रम में डालकर। इसलिए हम लोगों ने उसी समय अपने मकान में ही चिता
बनाकर उसे आग लगा दी। इस पर गुरू जी ने कहा अभी वहाँ पर पक्का चबूतरा बना दो और
निशान कायम कर दो। समय आयेगा जब हमारे सिक्ख दिल्ली पर विजय प्राप्त करेंगे तो वहाँ
भव्य भवन निर्माण करके शहीदों का स्मारक उजागर करेंगे।