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9. गोष्ठी-इमाम रुकनदीन के साथ (मक्का नगर, साउदी अरब)

जहाज़ से उतरकर श्री गुरू नानक देव जी अन्य यात्रियों के साथ मक्के नगर में पहुँच गए। भाई मरदाना जी ने काबा की मीनारें देखकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की। गुरुदेव ने उस समय अपनी विशेष वेष-भूषा, नीले वस्त्र धारण करके, हाथ में कासा लिया हुआ था तथा बगल में बाणी की पुस्तक ले रखी थी। अरबी-फारसी भाषा तथा मुस्लिम परम्पराओं के वे ज्ञाता थे। आप जी बहुत प्रभावशाली मुवाहिद, अद्वैतवादी सूफ़ी दरवेश लग रहे थे। काबा पहुँचने पर सभी हज़-यात्री थकान के कारण और सूर्य अस्त होने पर विश्राम के लिए परिक्रमा में चले गये और रात्रि के समय वहीं पर सो गए। सूर्य उदय होने को जब एक पहर, तीन घण्टे रहते थे तो जीवन नाम का मौलवी, जो कि भारत से हज़ करने पैदल के रास्ते आकर वहाँ पहले ही से पहुँचा हुआ था, दीपक जलाकर झाड़ू लगाने के विचार से आया। नए आए हाजियों को उसने ध्यान से देखा जो कि सो रहे थे। उसकी दृष्टि जब गुरुदेव पर पड़ी तो वह देखता ही रह गया, क्योंकि काअबा की तरफ पाँव करके गुरुदेव सो रहे हैं। तो उसे बहुत क्रोध आया, वह चिल्लाया: कि कौन कूफारी नास्तिक है जो काअबा शरीफ की तरफ पांव कर सोया हुआ है। उसने उसी क्षण गुरुदेव को लात प्रहार कर दी और कहने लगा, तुम काफ़िर हो या मोमन तुम्हें दिखाई नहीं देता, तुम खुदा के घर की तरफ पाँव करके सो रहे हो ? गुरुदेव जी ने बहुत धैर्य तथा नम्रता पूर्वक उत्तर दिया: कि मैं थका हुआ यात्री हूँ। अतः गुस्ताखी माफ कर दें, कृपया मेरे पाँव उस तरफ कर दें, जिस तरफ खुदा न हो। दूसरे ही क्षण बिना कुछ सोचे समझे उस ने गुरुदेव के पाँवों को पकड़ा और एक तरफ घसीटने लगा लेकिन उस के आश्चर्य की सीमा न रही जब उसने देखा कि जिधर गुरुदेव के पैर घसीटकर ले जाता, उधर ही काबा भी घूमता हुआ दिखाई देता। प्रभु की ऐसी शक्ति के चमत्कार को प्रत्यक्ष देखकर वह सहम गया, सभी हज़ यात्री भी इस कौतुक को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। इतने में उसे अपनी भूल का ऐहसास हुआ और वह सोचने लगा: कि ख़ुदा तो प्रत्येक दिशा में विद्यमान है फिर वह उस इस के पाँव किस तरफ करे। शोर सुनकर बगल के हाजी भी उठ बैठे जो कि गुरुदेव के साथ ही जहाज़ से आए थे। उन्होंने कहा: ठीक है, जिधर खुदा का वजूद नहीं उनके पाँव उधर कर दो। नहीं तो हम तुम्हें भी लात मारते हैं, क्योंकि तुम भी खुदा की तरफ पाँव किये हुए हो ? जीवन ने पूछा: वह कैसे ? मैंने तो पाँव काबे की तरफ नहीं किए हैं। तब अन्य हाजियों ने कहा: शरह के अनुसार खुदा रब्बउल-आलमीन, सर्वव्यापक है तो वह हर जगह मौजूद है, जमीन के नीचे भी है। अतः हम तेरे पाँव काटते हैं क्योंकि तूँ हमारे खुदा की तरफ पाँव करके चल फिर रहा है। इस युक्ति तथा तर्क संगत बात सुनकर जीवन मौलवी चकरा गया। जहां-जहां वह देखे उसे वहीं-वहीं काबा ही काबा दिखाई देने लगा। गुरुदेव के चरणों में वह तुरन्त आ गिरा और क्षमा याचना करने लगा। जब इस घटना का पता काबे के "मुख्य मौलवी, इमाम रुकनदीन" को हुआ तो वह गुरुदेव से मिलने आया और उनसे अनेकों आध्यात्मिक प्रश्न पूछने लगा: इमाम रुकनदीन: कि आपके विषय में मुझे जो जानकारी मिली है कि आप मुस्लिम नहीं है। मेहरबानी करके आप ही बताएँ कि आपका यहाँ आने का मुख्य प्रयोजन क्या है ? गुरुदेव जी: कि मैं आप सभी के "दर्शनों" के लिए यहाँ आया हूँ जिससे विचारविमर्श किया जा सके। रुकनदीन: कृपया आप यह बताएँ कि हिन्दू अच्छा है कि मुसलमान ? गुरु जी: केवल वही लोग भले हैं जो "शुभ आचरण" के स्वामी हैं। अर्थात जन्म, जाति से कोई अच्छा बुरा नहीं है। रुकनदीन: रसूल को आप मानते हैं कि नहीं ? गुरुदेव जी: अल्लाह के दरबार में कई रसूल और नबी, अवतार हाथ जोड़े खड़े हैं। इस पर कुछ अन्य मौलवियों ने गुरुदेव से पूछा: कि हमारे पैगम्बर ने तो हमें सम्पूर्ण ब्रह्मज्ञान, इल्म-ए-हकीकी दिया है। फिर आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया है ? आप हमें कौन से विशेष ज्ञान मारफत का मार्ग दिखाने आए हैं, जिससे हम अनजान हैं ? गुरुदेव जी: पैगम्बर तो उसे कहते हैं जो खुदा का पैगाम मनुष्य तक पहुँचाए। अतः आपके रसूल या नबी ख़ुदा का पैग़ाम लाए थे कि हे बंदे ! बन्दगी करोगे तो बहिश्त को जाओगे परन्तु इस मार्ग से अब बहुत लोग विचलित हो गए हैं। इसलिए वैसा ही पैग़ाम मैं फिर से लेकर आया हूँ। रुकनदीन: सच्चे ईमान, सिदक की कौन-कौन सी शर्तें अथवा नियम है ? गुरुदेव जी: ख़ास तौर पर चार नियमों का पालन सदैव करना चाहिए। 1. खुदा को सदैव अपने पास विद्यमान जानना। 2. सदगुणों वाले लोगों के सँग खुदा के गुणों की चर्चा सदैव करनी सत्संग करना। 3. ज़रूरतमन्दों की सहायता के लिए खर्च "अपनी शुभ आय में से" दसवन्त यानि आय का दसवाँ भाग करना। 4. जानबूझ कर कोई गलत कार्य न करना अर्थात पापों से पवित्र रहना। रुकनदीन: आपके विचार में विवेकशील मनुष्य कौन है ? गुरुदेव जी: 1. जो पुरुष नियत रास करता है अर्थात हृदय से किसी का बुरा नहीं चाहता। 2. किसी से ईर्ष्या नहीं करता। 3. दुख-सुख को एक समान जानकर किसी "समय" भी विचलित नहीं होता अर्थात खुदा पर गिला शिकवा नहीं करता। 4. यदि वह स्वयँ शक्तिशाली हो तो अपनी शक्ति का दुरोपयोग नहीं करता अर्थात दूसरों को अपनी शक्ति से भयभीत नहीं करता। काम, क्रोध पर नियन्त्रण करके सामाजिक बँधनों में रहता है। 5. अवगुणों का त्यागी तथा शुभ गुणों का धारक ही विवेकी है। रुकनदीन: हमारे धर्म में चार सिद्धाँतों, शराह के पालन करने का विधान है। 1. रोजे रखना। 2. जगराते द्वारा तपस्या करना। 3. दान, खैरात देना। 4. मौन रहना। इन सबके करने पर ख़ुदा की दृष्टि में कबूल माना जाएगा। गुरुदेव जी: हजार दिन एकान्त वास में तपस्या करें, हजार खज़ाने खैरात में दें तथा हजार दिन रोजे रखें या मौन रहकर इबादत करें किन्तु किसी एक ग़रीब का भी हृदय पीड़ित किया या उसे सताया तो सब कुछ व्यर्थ चला जाएगा। इमाम करीमदीन ने गुरुदेव से पूछा: 'शरीयत', 'तरीकत', 'मारफत' तथा 'हकीकत' शरहा के ये चार मुख्य नियम हैं। अतः आप बताएँ कि किस नियम द्वारा ख़ुदा तक पहुँचने में सरलता है ? गुरुदेव जी: कि यह चारों नियम खुदा तक पहुँचाने के मार्ग हैं परन्तु प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग क्षमता रखता है। अतः जिसको जो सरल सहज लगता है वह उसी को अपना सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हज सभी हाजियों का लक्ष्य है परन्तु सभी अपनी सुविधा अनुसार मार्ग चुन लेते हैं। पीर जलालउद्दीन: मुसलमानों के लिए "बहिश्त", "स्वर्ग" बनाया गया है। इसलिए दीन कबूल करने से ही दरगाह में स्वीकार्य हैं। गुरुदेव जी: आत्मा, रूह को हिन्दू या मुस्लिम में बाँटा नहीं जा सकता, जब तक यह शरीर है तब तक सम्प्रदायिक झगड़े हैं। जब शरीर नाश होगा तो रूह के कर्म प्रधान हैं। उसी के अनुसार उसका न्याय अथवा निर्णय होगा। गुरुदेव के उत्तरों से इमाम रुकनदीन जब सन्तुष्ट हो गया तो उसने गुरू बाबा नानक जी को हज़रत नानक शाह फ़कीर कहना प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रेम के कारण गुरुदेव उनके पास कुछ दिन विचार गोष्ठी करते रहे। इतने में वह काफिला भी आ पहुँचा जो कि गुरुदेव को अपने साथ लाने को तैयार नहीं था, जिसको वे पीछे सिंध क्षेत्र में ही छोड़ आए थे। उन्होंने गुरुदेव को जब पहले से ही मक्का में उपस्थित देखा तो उनको बहुत आश्चर्य हुआ। इस पर भी जब उनको यह मालूम हुआ कि गुरू जी ने अपने तर्कों से इमाम रुकनदीन का मन जीत लिया है तो उन्होंने गुरुदेव से अपनी भूल की क्षमा याचना की, हमने आपके साथ रास्ते में जो गुस्ताखी की है उसके लिए हमें क्षमा करें। मक्का के निवासियों से आज्ञा लेकर गुरुदेव जी जल्दी ही मदीना की यात्रा के लिए चल पड़े।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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