7. अरब देशों को प्रस्थान (सोनमयानी
बन्दरगाह, सिंध)
श्री गुरू नानक देव जी हिंगलाज नगर से सोनमयानी बन्दरगाह पर
पहुँचे, जो कि प्राकृतिक बन्दरगाह है। उन दिनों भी वहाँ से अरब देशों के साथ
जहाजरानी द्वारा बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। गुरुदेव ने दूरदृष्टि से काम
लेते हुए जैसा देश तैसा भेष के कथन अनुसार सूफी फ़कीरों जैसे नीले वस्त्र धारण कर
लिए तथा हाथ में काँसा इत्यादि ले लिया। वहाँ के निवासियों ने जब गुरुदेव को देखा
तो अधिकाँश ने सोचा, शायद यह सूफी मत के फ़कीर हैं जो कि हज यात्रा के लिए यहाँ पधारे
हैं। परन्तु कुछ लोगों ने आपको जल्दी ही पहचान लिया क्योंकि वे रास्ते में आपसे मिले
थे या हिंगलाज के मन्दिर में आपके प्रवचन सुन चुके थे। अतः उनके मन में शँका
उत्पन्न हुई, जिसके कारण वे पुनः आप जी के दर्शन करने आए और जिज्ञासा वश प्रश्न करने
लगे, आप जी वास्तव में किस मत के धारक हैं ? गुरुदेव ने उत्तर में कहा, मैं तो केवल
ज्ञान का धारक हूँ किसी विशेष मत का मतावलम्बी नहीं। जहां तक वस्त्रों या वेष-भूषा
की बात है, मैं सदैव आवश्यकता अनुसार तथा देश-काल अनुसार परिवर्तन करता रहता हूँ।
उनको गुरुदेव ने शिक्षा देते हुए कहा:
सच वरतु संतोखु तीरथु गिआनु धिआनु इसनानु ।।
दइआ देवता खिमा जपमाली ते माणस परधान ।।
जुगति धोती सुरति चउका तिलकु करणी होइ ।।
भाउ भोजनु नानका विरला त कोई कोइ ।। 1 ।। राग सारंग, अंग 1245
अर्थः जिन मनुष्यों ने सच को व्रत बनाया है। भाव सच धारण करने
का प्रण लिया है, संतोष जिनके लिए तीर्थ है, जीवन मनोरथ की समझ, भाव प्रभू चरणों
में चित्त जोड़ने को जिन मनुष्यों ने तीर्थ स्नान समझा है, दया जिनका इष्ट देव है
दूसरों को सहारने की आदत जिनकी माला है, सच्चा जीवन जिनके लिए देव पूजा के समय पहनने
वाली धोती है, सुरति को पवित्र रखना जिनका साफ सुथरा चौका है, ऊँचे आचरण का जिनके
माथे पर तिलक लगा हुआ है और प्रेम जिनकी आत्मा की खुराक है। हे नानक ! वो मनुष्य
सबसे अच्छे हैं, पर, इस जैसा तो कोई कोई ही विरला होता है। इस युक्ति पूर्ण
आत्मज्ञान की शिक्षा को सुनकर सभी लोगों ने गुरुदेव जी को नमस्कार किया। और वह
श्रेष्ठ मनुष्य बनने की प्रेरणा लेकर लौट गए। इस प्रकार गुरुदेव के आगमन की घर-घर
चर्चा होने लगी। उनकी स्तुति सुनकर जहाज का एक स्वामी उनसे मिलने आया और विनती करने
लगा, हे गुरुदेव ! मैं चाहता हूँ कि आप मेरे जहाज़ पर पधारें क्योंकि फ़कीरों,
महापुरुषों के चरणों की बरकत से तूफानी सँकट टल जाते हैं और आपका कीर्तन तो मन को
शान्ति प्रदान करता है। जहाज़ के सफर में, मैं कीर्तन सुनना चाहता हूँ जिससे समय
अच्छा कटेगा। गुरुदेव ने उस सिंधी-जहाज़ी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वास्तव में
जहाजी, सँगीत प्रेमी था। इसलिए गुरुदेव से उसकी बहुत निकटता हो गई। इस प्रकार यात्रा
प्रारम्भ हुई। गुरुदेव का अधिकाँश समय हरियश में कीर्तन करने में ही व्यतीत होता।
जहाज़ की छत पर सुबह-शाम सतसँग होता, गुरुदेव के प्रवचनों से अन्य यात्री भी लाभ उठा
रहे थे कि कुछ दिनों में अदन बन्दरगाह आ गया। जहाज़ के चालक ने बँदरगाह पर ठहरकर
घोषणा कर दी कि जब तक जहाज रसद पानी लेता है या माल उतारने या लादने का कार्य चलता
है तब तक सभी यात्री घूम फिर आएँ। इस कार्य के लिए तीन दिन का समय लगता था, अतः
गुरुदेव भी यात्रियों सहित अदन नगर की सैर में निकल गये।