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6. देवी देवताओं के चक्रव्यू से मुक्ति (हिंगलाज नगर, सिंध)

श्री गुरू नानक देव जी दादू नगर में हज पर जाने वाले किसी काफले की प्रतीक्षा में थे। सँयोग से उनको एक काफिला मिला जो कि हज के लिए जा रहा था। गुरुदेव भी उस काफिले में सम्मिलित हो गए। उनका विचार था कि ईरान ईराक होते हुए अरब देश में पैदल पहुँचेंगे। परन्तु जल्दी ही आपका उन यात्रियों से मतभेद हो गया। हुआ यूँ कि एक दिन के सफर के पश्चात् आप जी ने अपने नियम अनुसार भाई मरदाना जी को कीर्तन करने के लिए कहा। जैसे ही कीर्तन की मधुर बाणी हाजियों ने सुनी, तो उनमें से एक, जो कि मौलवी था, कहने लगा, ये लोग शायद हिन्दू काफिर हैं तभी सँगीत जैसी हराम चीज़ को गाते सुनते हैं, जिससे मन शैतान हो जाता है। इसलिए हम इनको अपने साथ नहीं ले जा सकते। क्योंकि इस्लाम में सँगीत कुप्रथा है। वैसे भी हिन्दुओं के लिए हज करने पर प्रतिबन्ध है। कहीं हम लोग इनके साथ पकड़े गए तो मारे जाएँगे। उन्होंने जब यह बात गुरुदेव से कही कि वे उनके साथ नहीं जा सकते तो भाई मरदाना जी बहुत निराश हुए। किन्तु गुरुदेव ने उन्हें विश्वास दिलवाया, वे चिन्ता न करें खुदा ने चाहा तो आप अवश्य ही काबे की ज़ियारत करेंगे। बस धैर्य रखो। गुरुदेव ने तभी पैदल यात्रा करने का विचार त्यागकर, समुद्री यात्रा द्वारा मक्के जाने की योजना बनाई और हिंगलाज नगर की तरफ चल पड़े। यात्रा में आपको कई यात्री तथा व्यापारी मिले जो कि जहाजों द्वारा सिंध से अरब देशों को माल का आयात निर्यात करते थे। वे लोग गुरुदेव के साथ बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि सफ़र के पड़ावों पर उनको सतसँग करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। कीर्तन की महिमा का उन लोगों को एहसास हुआ। उनमें से कुछ एक तो कीर्तन के दीवाने हो गए। इस प्रकार गुरुदेव से उनकी घनिष्टता हो गई। उन दिनों हिंगलाज एक सम्पन नगर था, जो कि हिंगलाज नदी के किनारे बसा हुआ था। जिसमें अधिकाँश हिन्दू मतावलम्बी रहते थे। उस नगर की एक छोटी सी पहाड़ी की चोटी पर काली माता का एक मन्दिर था। रमणीक घाटी वाले मन्दिर में गुरुदेव यात्रियों सहित चले गए और मन्दिर के निकट प्रभु स्तुति में कीर्तन करने लगे। प्रभु स्तुति सुनकर वहाँ के निवासी तथा अन्य यात्री जिज्ञासावश गुरुदेव की बाणी सुनने लगे:

जो उपजै सो कालि संघारिआ ।।
हम हरि राखे गुर सबदु बीचारिआ ।।1।। रहाउ ।।
माइआ मोहे देवी सभि देवा ।। कालु न छोड़ै बिनु गुर की सेवा ।।
ओह अबिनासी अलख अभेवा ।।2।। हिरदै साचु वसै हरि नाइ ।।
कालु न जोहि सकै गुण गाइ ।।9।।
राग गउड़ी, अंग 227 

अर्थः जिस किसी का भी निर्माण या रचना हुई है, उसको मौत नाश कर देती है। परमात्मा ने मेरी रक्षा की है, क्योंकि मैंने गुरू के उपदेशों का सिमरन किया है। माया एक ऐसी मोहिनी है, जिसने देवी-देवताओं को भी नहीं छोड़ा यानि देवी और देवताओं को भी छल लिया है। गुरू की चाकरी के बिना मौत किसी को भी नहीं छोड़ती। वो प्रभू आप अमर, अदृश्य और अभेद है। मौत उसको ताड़ नहीं सकती जिसके दिल में परमात्मा का सच्चा नाम रहता है और जो गुरू का जस गाता है। कीर्तन की समाप्ति पर गुरुदेव ने कहा, हे जिज्ञासु भक्त जनों ! सबको जान लेना चाहिए कि प्रथम, ब्रह्मा भी काल से मुक्त नहीं है। जिनको कि सब सृष्टि की उत्पति कर्ता मानते हैं। इसलिए जो भी जीवधारी यहाँ पर दिखाई देता है, वह एक न एक दिन अवश्य ही कालवश होगा। परन्तु जो लोग सतसँगत में हरियश श्रवण करते हैं काल उनका मित्र बन जाता है तथा उनके साथ मित्रों वाला व्यवहार करते हुए प्रभु चरणों में निवास दिलवाता है। इसलिए निर्गुण स्वरूप प्रभु के गुण गायन सदैव करने चाहिए जो कि सर्वशक्तिमान है। और देवी देवताओं के चक्रव्यूह से मुक्त रहना चाहिए। इस प्रकार चारों तरफ गुरुदेव का यश फैल गया। अनेकों श्रद्धालु वहाँ पर एकत्र होने लगे तथा गुरू उपदेशों से लाभ उठाने लगे। वहाँ पर गुरुदेव ने एक धर्मशाला बनवाई। जहां पर ज्योतिस्वरूप पारब्रह्म परमेश्वर की उपासना करने का विधिविधान दृढ़ करवाने लगे जैसा कि हरियश के लिए किसी काल्पनिक देवी देवताओं की मूर्ति की कोई आवश्यकता नहीं होती, केवल गुरू शब्द का ही सहारा लेना चाहिए। तत्पश्चात् आप जी सोनमयानी बन्दरगाह की ओर प्रस्थान कर गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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