37. शीहां तथा गज्जण जी
श्री गुरू नानक देव जी के दरबार में एक दिन दो चचेरे भाई शीहां
और गज्जण आए और प्रार्थना करने लगे, हे गुरुदेव जी ! हम आवागमन से मुक्त होना चाहते
हैं अतः हमारा मार्ग दर्शन करें। उत्तर में गुरुदेव ने कहा, यदि हृदय में सच्ची
अभिलाषा है तो आप वाहिगुरू शब्द का जाप करना आरम्भ कर दें। धीरे-धीरे अभ्यास बन जाने
पर ध्यान एकाग्र हो जायेगा और सुरति सुमिरन हर समय बना रहेगा। भवसागर से पार होने
का यही एक मात्र साधन है। इस पर भाई गज्जण बोले, कृपया आप हमें वाहिगुरू शब्द की
व्याख्या कर बताएं कि इसके अर्थ-बोध क्या हैं, तथा प्रभु में विलय होने में यह शब्द
किस प्रकार सहायक है ? गुरुदेव ने कहा, वाहि शब्द का प्रयोग आश्चर्य के लिए किया
जाता है, जिसके अस्तित्व से समस्त वस्तुओं का बोध होता है, यदि उसके अस्तित्व का
बोध न हो पाए तो गुरू नाम ज्ञान तक पहुँचाने वाली शक्ति का है। वाहिगुरू का नाम
प्राणी को उस आश्चर्य की अवस्था तक ले जाता है जहां पर इस जड़ रूप अनित्य देह को
त्यागकर, प्रकाश रूपी दिव्य ज्योति में विलय होने का सौभाग्य प्राप्त होता है।
किन्तु इस अभ्यास के लिए साधसंगत में जाना अनिवार्य है, सतसंगत ही वह स्थान है जहां
प्रभु स्वयँ प्रकाशमान है। वहाँ पर किया गया अभ्यास शत प्रतिशत सफल होता है क्योंकि
वह आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान की पाठशाला होती है।