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33. गुरुदेव अचल बटाला के मेले में

श्री गुरू नानक देव जी, स्वयँ द्वारा बसाए गए नगर करतारपुर में मानव मूल्यों पर आधारित, नवचेतना के लिए जिन सिद्धाँतों का प्रचार कर रहे थे, उन्होंने उस जीवन शैली को गुरुमति मार्ग का नाम देकर, उस पद्धति से जीवनयापन करने वालों को सिक्ख का नाम दिया। वैसे आप जी, गुरू-सिक्ख का नाता तो अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर विदेशों में भी स्थापित कर आए थे। परन्तु उसके लिए केन्द्रिय स्थान न होने के कारण, पुनः सम्पर्क न हो पाने से, वह नाता प्रफुल्लित नहीं हो पा रहा था। समय के अन्तराल या कुछ भौगोलिक दूरियों के कारण जो विघ्न बीच में आए थे उन्हें पुनः सृजीत करने के लिए आपने जनसाधारण से सीधा सम्बन्ध स्थापित करने का फिर से विचार किया अतः आप इस उद्देश्य को लेकर निकट के नगरों के मेलों इत्यादि में सम्मिलित होने के लिए अचल बटाला पहुँचे। जिला गुरदासपुर में बटाला नगर से दो कोस दक्षिण की तरफ अचल नाम का एक प्राचीन शिव मन्दिर है। उस मन्दिर के कारण उस गाँव का नाम भी अचल बटाला प्रसिद्ध हो गया है। उन दिनों वह स्थान नाथपँथी योगियों का बहुत प्रसिद्ध केन्द्र था। वहाँ शिवरात्रि पर्व पर हर वर्ष मेला लगता था। उस मेले में चारों तरफ से नाथपँथी योगी आकर धूनियाँ लगाते थे और लोगों को प्रभावित करके उनसे धन बटोरने के लिए अनेकों प्रकार की सिद्धियों का प्रर्दशन करते थे। उनके अतिरिक्त वैष्णव और अन्य सम्प्रदाय के साधु भी अपने प्रचार द्वारा श्रद्धालुओं से धन सँग्रह करने के लिए आते थे। वे वैष्णव लोग जिन्हें पँजाब के लोग प्रायः भगतियाँ कहते थे, लोगों को रासलीला और नृत्य दिखाकर या भक्ति भावना के पदे, शब्द गाकर रिझाते थे। उस मेले में इस बार श्री गुरू नानक देव जी भी अपने सेवकों को साथ लेकर जनसाधारण का मार्गदर्शन करने के लिए आए। आप जी ने एक वृक्ष के नीचे अपना खेमा लगाया और स्वयँसेवकों के साथ अपनी परम्परा अनुसार कीर्तन में व्यस्त हो गए कीर्तन की मधुरता के चुम्बकीय आकर्षण से अपार जनसमूह आपके निकट आकर बैठ गया। दूसरी तरफ वैष्णव भक्त लोग, अपनी रास लीला द्वारा जनता का मनोरँजन कर रहे थे जिस कारण खेल तमाशा देखने वाले वहाँ एकत्र हो गए। अतः नाथ-योगियों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया। वे लोग इस तरह की उपेक्षा सहन नहीं कर पा रहे थे। गुरुदेव जब यहाँ अपने सेवकों सहित पहुँचे तो कुछ योगियों ने उन्हें तुरन्त पहचान लिया, जिनकी भेंट लगभग 30 वर्ष पूर्व गुरुदेव से सुमेर, कैलाश पर्वत पर हुई थी। भले ही 30 वर्ष के अन्तराल के कारण गुरुदेव अब युवावस्था में नहीं थे ना ही उन्होंने कोई सँन्यासियों जैसी वेषभूषा धारण कर रखी थी। किन्तु उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा कीर्तन मण्डली का साथ में होना उनकी पहली पहचान थी। गुरुदेव को वहाँ पर देखकर योगियों को चिंता हुई कि जनसाधारण कीर्तन के आकर्षण से बँधकर नानक जी के हो जाऐंगे, अतः उनके निकट कोई नहीं आयेगा जिस कारण उनके लिए माया का सँकट उत्पन्न हो जायेगा। इस सँकट के समाधान हेतु उन्होंने जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए कोई हँगामा करने के विचार से, मस्ती में आँखें मूँदकर नृत्य करते हुए, भगतियों का माया वाला बर्तन उठवाकर कहीं छिपा दिया, जिनमें जनता उनके लिए अनुदान के रूप में पैसे डालती थी। इस पर मेले में बहुत हलचल मच गई कि स्वाँगियों का धन कोई चुरा ले गया है। वे स्वाँगी लोग गुरुदेव के पास आए और निवेदन करने लगे, हे गुरुदेव जी! आप हमारी सहायता करें हमें हमारा खोया हुआ धन वापस दिलवा दें।

गुरुदेव ने उन्हें साँत्वना दी और कहा, सब ठीक हो जायेगा। बस धैर्य रखें। गुरुदेव ने अपने सेवकों को तुरन्त सर्तक किया और आदेश दिया कि सभी योगियों की गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखें। ऐसा ही किया गया। गुरुदेव को एक श्रद्धालु ने बताया कि योगियों के संकेत पर उसने एक व्यक्ति को कोई वस्तु छिपाते हुए देखा है। फिर क्या था वहाँ की छानबीन तुरन्त की गई जिससे वह धन का बर्तन प्राप्त कर लिया गया। इस प्रकार स्वाँगी प्रसन्न होकर, गुरुदेव का ध्न्यावाद करते हुए उनका यशगान करने लगे। इसके विपरीत योगियों की प्रतिष्ठा पर बहुत बड़ा आघात पहुँचा जिसको योगी सहन नहीं कर पाए। उनके हृदय द्वेष अग्नि से जलने लगे, वे क्रोधित हो गए और इस बात को अपना अपमान समझकर गुरुदेव के साथ वाकयुद्ध करने पहुँच गए। गुरुदेव इसके लिए पहले से ही तैयार बैठे थे। अतः वाकयुद्ध आरम्भ हो गया। योगियों के मुखिया भँगरनाथ ने गुरुदेव को चुनौती देकर कहा: हम अतीत साधु होने से हमने योग बल प्राप्त किया हुआ है। हम यहाँ उसका प्रर्दशन कर सकते हैं यदि तुम हमारे सामने कोई करामात दिखा दो तो जनता के सामने हम आपको श्रेष्ठ मान लेते हैं। नहीं तो हम श्रेष्ठ हैं। उत्तर में गुरुदेव ने कहा: अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन करना तो मदारियों का काम है। सच्चे साधु को यह क्रिया शोभा नहीं देती। यदि कोई ऐसा करता है तो वह प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप करता है। ऐसा प्रदर्शन करने वाले लोग भले ही कुछ क्षण के लिए जनता की वाह-वाह ले सकते हैं परन्तु अपने वास्तविक लक्ष्य से चूक जाते हैं, जिससे उनकी साधना व्यर्थ चली जाती है। यदि आप वास्तविक अतीत साधु हैं तो आपको चाहिए कि आप प्रभु के भरोसे पर रहें, अतः आपको किसी साँसारिक वस्तु की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जो कुछ परमात्मा सहज में दे, उस पर संतोष करते हुए निर्वाह करना चाहिए, किन्तु आपका आचरण इन बातों के विपरीत है। आप केवल वाह-वाह लेने के लिए अपनी शक्ति का दुरोपयोग करते हैं। इसके पीछे धन एकत्र करने की कामना रहती है, जो कि एक सँन्यासी को नहीं करनी चाहिए। यह कड़वा सत्य सुनकर योगी बौखला उठे। उस समय गुरुदेव ने इस सम्बन्ध में बाणी उच्चारण कीः

हाथि कमंडल कापड़ीआ मनि त्रिसना उपजी भारी ।।
इसत्री तजि करि कामि विआपिआ चितु लाइआ पर नारी ।।
सिख करे करि सबदु न चीनै लंपटु है बाजारी ।।
अंतरि विखु बाहिर निभराती ता जमु करे खुआरी ।।
सो संनियासी जो सतिगुर सेवै विचहु आपु गवाए ।।
छादन भोजन की आस न करई अचिंतु मिलै सो पाए ।।
बकै न बोलै खिमा धनु संग्रहै तामसु नामि जलाए ।।
धनु गिरही संनिआसी जोगी जि हरि चरणी चितु लाए ।।
राग मारू, पृष्ठ 1013

अर्थः मनमुख (मन से चलने वाला) मनुष्य त्यागी बनकर हाथ में कमण्डल पकड़ लेता है, चिथड़ों और लीरों का चोला पहन लेता है, पर मन में माया की भारी त्रिशना पैदा होती है। अपनी तरफ से त्यागी बनकर अपनी स्त्री को छोड़कर आए हुए को काम वासना ने आ दबोचा, तो पराई नारी के साथ चित्त जोड़ता है। चेले बनाता है, गुरू के शबद को गुरू की बाणी को नहीं पहचानता, काम वासना में ग्रसित है और इस प्रकार सन्यासी बनने के स्थान पर कुछ ओर ही बन गया है यानि लोगों की नजर में मसखरा बन गया है। मनमुख के अन्दर आत्मिक मौत लाने वाला त्रिशना का जहर है। बाहर लोगों को दिखाने के लिए शान्ति धारण की हुई है। ऐसे पाखण्डी को आत्मिक मौत बेइज्जत करती है। असल सन्यासी वो है जो गुरू के बताए गए मार्ग पर चलता है और सेवा करता है और अपने अन्दर से आपा भाव यानि अहं भाव दूर करता है और लोगों की तरफ से कपड़े और भोजन की आस बनाए नहीं रखता, सहज स्वभाव से जो मिल जाता है, वो ले लेता है, बहुत ज्यादा बड़े बोल नहीं बोलता रहता और दुसरों की अच्छाईयों को सहारने के स्वभाव का रूप धन अपने अन्दर एकत्रित करता है और प्रभू के नाम की बरकत से अन्दर से क्रोध जला देता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा के चरणों में अपना चित्त रखता है, वह भाग्यशाली होता है, वो चाहे ग्रहस्थी हो, चाहे साधु हो या फिर सन्यासी हो। इसके अतिरिक्त आप लोगों का पर्वतों से यहाँ आने का मुख्य उद्देश्य काम तृप्ति के लिए परनारियों को वश में करना ही है जबकि आप दावा करते हैं कि आप स्त्री त्यागी हैं। जब सब योगी निराश होकर स्वयँ को पराजित अनुभव करने लगे। तब उन्होंने, गुरुदेव से प्रार्थना की: कृपया आप उन्हें बताएँ कि आपके पास वे कौन सी शक्ति है, जिससे आप जनता का मन जीत लेते हैं ? गुरुदेव ने उत्तर में कहा: हे योगियो ! हमारे पास केवल प्रभु नाम की शक्ति है, इसके अतिरिक्त कोई नाटकीय चमत्कारिक करामातें नहीं रखते। वे सब हमारी दृष्टि में तुच्छ हैं। हमने परमेश्वर के सच्चे नाम और साध-संगति का आश्रय लिया है जो सदैव हमारा मार्ग दर्शन करता है। अन्त में योगियों ने गुरुदेव के साथ सँधि करने के विचार से आश्रम से मदिरा मँगवाई, वे लोग इस उत्सव का आँनद लेने के लिए पहले से ही तैयार कर के रखते थे और उस मदिरा का एक प्याला गुरुदेव के समक्ष प्रस्तुत किया। गुरुदेव ने उस प्याले को देखकर कहा: मैं यह झूठा मद्य नहीं पीता, मैंने प्रभु नाम रूपी सच्चा मद्य पिया हुआ है जिससे सदैव एक रस खुमार चढ़ा रहता है जिसका नशा कभी भी नहीं उतरता। यह सुनकर योगी कौतूहलवश पूछने लगे: कि वह मद्य कैसे तैयार किया जाता है, कृपया उन्हें उसकी विधि बताएँ। इस पर गुरुदेव ने बाणी उच्चारण की:

गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ ॥
भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ ॥१॥
बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ ॥
अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ ॥१॥ रहाउ ॥
पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे ॥
अमृत का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे ॥२॥
गुर की साखी अमृत बाणी पीवत ही परवाणु भइआ ॥
दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ ॥३॥
सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै ॥
कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अमृत धारै ॥४॥
राग आसा महला १ अंग 360

अर्थः अगर जोगी ! तुम सुरति को टिकाने के लिए शराब पीते हो, तो यह नशा तो तुरन्त उतर जाता है। असल मस्ताना वो मन है जो परमात्मा के नाम सिमरन का रस पीता है और सिमरन का आनंद प्राप्त करता है और जो सिमरन की बरकत से अडोलता के हुलारों में टिका रहता है, जिसको भाव प्रभू चरणों के प्रेम की इतनी लिव लग जाती है जो कि दिन रात बनी रहती है और जो अपने गुरू के शबद को गुरू की बाणी को सदा एक रस अपने अन्दर टिकाए रखता है। हे जोगी ! परमात्मा से गहरी सांझ यानि साथ बना भाव प्रभू चरणों में जुड़ी सुरति को महूऐ के फूल बना, ऊँचें आचरण को अपना। शरीरक मोह को जलाकर, यह शराब तैयार कर, भाव प्रभू चरणों से प्यार जोड़, यह है वो ठंडा पोचा जो अर्क वाली नाली के ऊपर फेरना है। इस सारे मिले हुए रस में से अटल आत्मिक जीवन दाता अमृत निकलेगा। हे जोगी ! यह है वो प्याला जिसकी मस्ती सदा टिकी रहती है, सारे गुणों का मालिक प्रभू अडोलता में रखकर उस मनुष्य को यह प्याला पिलाता है, जिस पर आप मेहर करता है। जो मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाले इस रस का व्यापारी बन जाए तो वह तुम्हारे इस ओछे रस यानि शराब से प्यार नहीं करता। जिस मनुष्य ने अटल आत्मिक जीवन देने वाली गुरू की शिक्षा भरी बाणी का रस पीया है, वो पीते ही प्रभू की नजरों में कबूल हो जाता है, वो परमात्मा के दर के दीदार का प्रेमी बन जाता है, उसको ना तो मुक्ति की जरूरत है और ना बैकुण्ठ की। हे नानक कह, हे भरथरी योगी ! जो मनुष्य प्रभू की सिफत सलाह में रंगा गया है वो सदा माया के मोह से विरक्त रहता है, वो आत्मिक मनुष्य जीवन के जुए में भाव आजादी नहीं गवाँता, वो तो अटल आत्मिक जीवन दाता के आनंद में मस्त रहता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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