32. मर्यादा तथा दैनिक जीवन
श्री गुरू नानक देव जी द्वारा भूमि के निःशुल्क प्रस्ताव के
आकर्षण के कारण दूर-दूर से व्यापारी तथा कारीगर लोग करतारपुर में बसने लगे। देखते
ही देखते नगर की जनसँख्या दुगनी-चौगुनी होने लगी। इसके अतिरिक्त गुरुदेव के दर्शनों
के लिए भी रात-दिन श्रद्धालुओं का ताँता लगने लगा। इसलिए गुरुदेव ने रात दिन लँगर
लगवा दिया। लँगर के लिए अनाज व्यवस्था बनी रहे, इसके लिए आप जी ने नगर बसने की भूमि
के अतिरिक्त भूमि पर खेती आरम्भ कर दी। आप जी अपनी दिनचर्या में अमृत बेला में उठकर
रावी नदी में स्नान करने के उपरान्त धर्मशाला में बैठकर सहज योग में प्रभु चिन्तन
करते। जब संगत तथा रबाबी मरदाना जी आ जाते तब कीर्तन आरम्भ हो जाता। सूर्य उदय होने
पर आप जी संगत के समक्ष प्रवचन करते, तत्पश्चात् समाप्ति कर समस्त संगत अपने-अपने
घरों को लौटकर घर-गृहस्थी के कार्यों में लीन हो जाती। गुरुदेव स्वयँ भी हल अथवा
दराँती लेकर अपने खेतों की देखभाल के लिए जाते। दूर से आए दर्शनार्थियों के लिए
लँगर व्यवस्था होती। स्थायी रूप से साथ में रहने वाले सेवकों को आदेश था कि वे
अवकाश पाते ही खेतों में कार्यरत हो जाएँ। सँघ्या समय पुनः सतसँग का दरबार लगता।
गुरुदेव श्रद्धालुओं के मन की शँकाओं का निवारण करते तथा उनकी जिज्ञासाओं पर
विचारविमर्श अथवा गोष्ठी होती। इस तरह के दैनिक नियमों के अनुसार गुरुदेव ने अपने
सिक्खों, शिष्यों, को ढालना प्रारम्भ कर दिया तथा चरित्र निर्माण के कार्यक्रम में
बाणी का अध्ययन करना अनिवार्य कर दिया गया। इसके साथ ही तीन सूत्रीय कार्यक्रम को
भी व्यवहारिक रूप रेखा देनी प्रारम्भ कर दी, किरत करो, नाम जपो और बाँटकर खाओ।