30. करतारपुर नगर बसाया
श्री गुरू नानक देव जी पक्खो के रँधवे ग्राम से चौधरी अजिता को
साथ लेकर रावी के तट पर एक नए नगर की आधारशिला रखने के लिए ले आए। आप जी ने आसपास
के गाँवों से सभी लोगों को आमन्त्रित किया और एक समारोह का आयोजन करके भाई दोदा जी
से आश्रम का शिलान्यास करवाया और सतसँग की स्थापना करके प्रस्तावित नगर का नाम
करतारपुर रखा। गुरुदेव के श्रद्धालुओं ने तन, मन, धन से सेवा प्रारम्भ कर दी। कुछ
ही दिनों में देखते ही देखते एक भवन हवेली के रूप में तैयार हो गया। जहां पर
प्रतिदिन साधसंगत जुड़ने लगी और दूर-दूर से लोग आकर रहने लगे। वहाँ की महिमा कस्तूरी
की सुगँधी की तरह फैलने लगी। निकट के नगर कलानौर परगने का जागीरदार, हाकिम करोड़िया
इस स्तुति को सहन नहीं कर पाया। उसका अभिमान उसके आड़े आ गया। उसने सोचा, वह भूमि तो
उनके क्षेत्र की है, वहाँ करतारपुर बसाया जा रहा है। अतः उसने अपना एक प्रतिनिधि
भेजकर कहलवाया, जिस भूमि पर आपने बस्ती बसानी प्रारम्भ की है वह सरकारी भूमि है। जो
आपने रुपया जमा करवाया था वह कई वर्षों के बकाया लगान में चुकता हो गया है। इसलिए
इस भूमि को खाली कर दो। गुरुदेव ने उत्तर में कहा, हमने यह भूमि खरीदी है इसका पट्टा
हमारे पास है। जहां तक लगान का प्रश्न है, हमने इस भूमि पर पिछले कई वर्षों से खेती
की ही नहीं, इसलिए लगान किस बात का ? भूमि हमारी है हम उसका किसी प्रकार से भी
प्रयोग करें, उस पर हमारा अधिकार है। हमें इसके लिए किसी से अनुमति लेने की कोई
आवश्यकता नहीं। इस उत्तर को प्राप्त करके करोड़िया बहुत क्रोधित हुआ। उसने अपने साथ
कुछ सिपाही तुरन्त लिए और गुरुदेव के डेरे को बर्बाद करने के विचार से घोड़े पर सवार
होकर चल पड़ा। रास्ते में एक स्थान पर घोड़ा एक साधारण से विस्फोट से भयभीत होकर
नियन्त्रण से बाहर हो गया। जिस कारण करोड़िया मल घोड़े से नीचे गिरा और टाँग पर गहरी
चोट आई। पीड़ा के कारण आगे बढ़ना सम्भव न था, अतः रास्ते में ही से वापिस लौट गया।
कुछ दिन पश्चात् जब वह स्वस्थ हुआ, तब उसने पुनः सिपाही लेकर डेरा बर्बाद करने की
ठानी और घर से चल पड़ा। तब कई हितैषियों ने उसे समझाने की चेष्टा की कि नानक जी
पूर्ण पुरुष हैं उनसे बिना कारण वैर-भाव रखना उचित नहीं, इस प्रकार उसका अनिष्ट हो
सकता है। किन्तु करोड़िया किसी की भी सुनने को तैयार नहीं था। वह क्रोध में आग उगलता
हुआ आगे बढ़ने लगा। लम्बी यात्रा के कारण उसका रक्त चाप बढ़ गया जिस कारण उसकी आँखों
के सामने अँधेरा छाने लगा। वह चक्कर खाकर गिरने लगा तभी उसके सहायकों ने उसे थाम
लिया और परामर्श दिया कि वे अपनी विचारधारा बदलें और शान्तचित होकर पुनः विचार करें
कि वे जो करने जा रहे हैं क्या यह न्याय है ? इस पर करोड़ियां वापस चला गया। घर जाकर
अपनी भावनाओं का विशलेषण करने लगा। गुरुदेव को इस घटना का पता चला तो निम्नलिखित
पंक्तियाँ उच्चारण की:
नानकु आखै रे मना सुणीऐ सिख सही ।।
लेखा रबु मंगेसीआ बैठा कढि वही ।।
तलबा पउसनि आकीआ बाकी जिना रही ।।
अजराईलु फरेसता होसी आइ तई ।।
आवणु जाणु न सुझई भीड़ी गली फही ।।
कूड़ निखुटे नानका ओडकि सचि रही ।। 2 ।। राग रामकली, अंग 953
अर्थः नानक जी कहते हैं, हे मन ! सच्ची शिक्षा सुन, तेरे किए गए
कर्म के लेखे वाली बही यानि किताब को निकालकर परमात्मा हिसाब पुछेगा। जिनके लेखे की
बाकी रह जाती है उन-उन मनुष्यों को बुलावा आएगा, मौत का फरिश्ता किए गए कर्मों के
अनुसार दुख देने सिर पर आकर तैयार खड़ा हो जाएगा। इसमें फसी हुई जिंद को कुछ सुझता
नहीं है। हे नानक ! झूठ के व्यापारी हारकर जाते हैं जबकि सच ही प्रबल होगा। अन्त
में एक दिन वही करोड़िया जनसाधारण बनकर, कुछ उपहार लेकर पैदल ही गुरुदेव के दर्शनों
को आया। गुरुदेव की महिमा उसने जैसी सुनी थी वैसी ही पाई। डेरे में प्रातःकाल तथा
सँध्या समय हरियश होता देखकर उसका मन शान्त हो गया। उसने गुरुदेव को उपहार भेंट किये
तथा अपनी भूल के लिए प्रायश्चित करते हुए क्षमा याचना की। गुरुदेव ने उसे शिक्षा
देते हुए कहा, किसी के प्रति भी अनुमान लगाकर निर्णय करना भूल होती है। साक्षात
अनुभव ही सत्य निष्कर्ष होता है। अतः प्रत्यक्ष को प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं होती।
इसलिए आप बताएँ कि आपने यहाँ क्या गलत देखा है, जो कि सामाजिक अथवा राजनैतिक नियमों
के विरुद्ध है। यहाँ तो परस्पर प्यार ही प्यार बाँटने की शिक्षा दी जाती है। यही
नियम प्रकृति के निकट ला खड़ा करता है, जिससे व्यक्ति आँनद उठा सकता है। करतार पुर
के जागीरदार करोड़िया से झगड़ा समाप्त होते ही गुरुदेव ने अपने छोटे साहिबज़ादे
लक्खमीदास तथा भाई मरदाना जी को तलवण्डी भेजा कि वे अपने दादा-दादी तथा भाई मरदाना
जी के परिवार को करतारपुर ले आयें। इस प्रकार गुरुदेव के माता पिता और भाई मरदाना
जी का परिवार करतारपुर में रहने लगे।