3. फ़कीर बहाउद्दीन मखदूम (मुल्तान नगर,
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श्री गुरू नानक देव जी तुलम्बा नगर से मुल्तान नगर पहुँचे। वह
स्थान फ़कीरों की नगरी कहलाता था। क्योंकि वहाँ पर अनेक सूफी फ़कीरों के आश्रम थे।
गुरुदेव जब वहाँ पहुँचे तो उन फ़कीरों को बहुत चिन्ता हुई कि गुरू नानक देव जी के
तेज प्रताप के आगे वह टिक नहीं सकेंगे। इसलिए उन्होंने आपस में विचार विमर्श किया
कि किसी भी युक्ति से गुरू नानक देव जी तक यह बात पहुँचाई जाए कि वहाँ पहले से ही
बहुत पीर-फ़कीर मौजूद हैं। उनके आने से वहाँ का सन्तुलन बिगड़ जायेगा। वास्तव में बात
यह थी कि जब गुरुदेव अपने दूसरे प्रचार-दौर में पाकपटन में शेख ब्रह्म जी से मिले
थे तो उन्होंने आपकी बाणी का प्रचार प्रारम्भ कर दिया था तथा आप के बताये मार्ग पर
स्वयँ भी जीवन यापन करना आरम्भ कर दिया था। इस बात की चर्चा मुल्तान के घर-घर हो रही
थी। उन फ़कीरों ने एक रहस्यमय ढँग से यह सँदेश गुरुदेव तक पहुँचाने का कार्यक्रम
बनाया। उन्होंने दूध से लबालब भरा हुआ एक कटोरा गुरुदेव के समक्ष प्रस्तुत किया।
गुरुदेव ने तब भाई मरदाना जी को एक चमेली का फूल तथा एक बताशा दूध के कटोरे में
डालने के लिए कहा और कटोरा तुरन्त लौटा दिया। इस पर भाई जी ने इस रहस्य को जानने की
इच्छा प्रकट की। गुरुदेव ने बताया कि स्थानीय फ़कीर उन्हें वहां पर देखना नहीं चाहते।
उनका कहना है कि उनके यहाँ रहते गुरुदेव जी की आवश्यकता नहीं। इसलिए हमने इस बात का
उत्तर दिया है कि जैसे दूध में बताशा मिश्रित हो जाता है तथा चमेली का फूल कोई
स्थान न लेकर केवल तैरता रहता है, ठीक उसी प्रकार वह उन लोगों पर कोई बोझ नहीं
बनेंगे तथा किसी का भी अनिष्ट नहीं होगा। उन दिनों मुल्तान में बहाउद्दीन मखदूम
प्रमुख फ़कीरों में से एक थे, जिन्होंने गुरुदेव के सम्मुख होकर विचार विमर्श
प्रारम्भ किया। वहाँ के अन्य फ़कीरों ने भी बाद में उस गोष्ठी में भाग लिया जिन में
पीर बहावल हक, सयद अब्दुल कादरी इत्यादि प्रमुख थे। प्रथम भेंट होने पर बहाउद्दीन
मखदूम ने गुरुदेव से पूछा, आप कुशल मँगल में हैं ? गुरुदेव ने उत्तर में कहा, प्रभु
में लीन आप जैसे पुरुषों के दर्शन होने के कारण मैं हर्ष-उल्लास में आ गया हूँ। यह
उत्तर सुनकर बहाउद्दीन मखदूम जी बहुत प्रसन्न हुए। चर्चा आरम्भ हुई एवं मखदूम जी ने
कहा: हमें मालूम है आप हिन्दू-मुस्लिम को सम दृष्टि से देखते है, परन्तु आप यह बताएँ
कि दोनों में उस खुदा की ज्योति एक सम है ? गुरुदेव ने उत्तर में कहा: उस अल्लाह के
नूर का अँश सबमें विद्यमान है परन्तु जो लोग उस की इबादत करते हैं, उनमें उसका अँश
विकसित होना प्रारम्भ कर देता है, जिससे उस व्यक्ति विशेष का तेज-प्रताप बढ़ता जाता
है। इस बात के लिए हिन्दू या मुस्लिम होने का सम्बन्ध नहीं। भावार्थ यह कि वह किसी
भी मानव से मतभेद नहीं रखता है। वास्तविकता यह है कि वह सबमें बिराजमान होकर स्वयँ
सृष्टि का खेल देख रहा है:
आपे रसीआ आपि रसु आपे रावणहारु ।।
आपे होवै चोलड़ा आपे सेज भातारु ।।
रंगि रता मेरा साहिबु रवि रहिआ भरपूरि ।। रहाउ ।।
आपे माछी मछुली आपे पाणी जालु ।।
आपे जाल मणकड़ा आपे अंदरि लालु ।।
आपे बहु विधि रंगुला सखीए मेरा लालु ।। राग सिरी राग, अंग 23
अर्थः प्रभू आप ही स्वाद लेने वाला है और आप ही स्वाद और आप ही
भोगने वाला है। आप ही पत्नी है और आप ही पति और आप ही सजी हुई सेज है। मेरा मालिक
प्रीत और प्रेम से रँगा हुआ है और हर स्थान पर पूर्ण रूप से समा रहा है। परमात्मा
आप ही मछली पकड़ने वाला, आप ही मछली, आप ही जाल, आप ही फंदा, आप ही फंदे की धातु का
मड़का और आप ही उसके बीच का दाना (जिसे देखकर मछली लालच में आकर फँस जाती है।) मेरी
सहेलियों ! मेरा प्यारा प्रभू आप ही कई तरीकों से खेल तमाशे करने वाला है। इस शब्द
को सुनकर बहाउद्दीन ने गुरु जी से पूछा: उस प्रभु की कृपा दृष्टि किस प्रकार के
कार्य करने से प्राप्त हो सकती है ? गुरुदेव ने उत्तर में कहा: वे सभी लोग कृपा
दृष्टि के पात्र हो सकते हैं जो खुदा की रज़ा में आ जाते हैं। अर्थात गुरुमुख बन जाते
हैं इसके विपरीत जो लोग मनमानी करके अल्लाह की रज़ा के विरुद्ध चलने की कोशिश करते
हैं उन पर उसकी कृपा दृष्टि नहीं हो सकती अर्थात वह मनमुख कहलाते हैं। इस उत्तर को
सुनकर बहाउद्दीन मखदूम पूछने लगे: मुझे गुरुमुख मनुष्यों की पहचान करवाओ। जिससे मैं
मनमुख तथा गुरुमुख में भेद समझ सकूँ। गुरुदेव ने उत्तर में कहा: कि रात को खुदा की
बँदगी करते समय आप अपनी इस जिज्ञासा को ध्यान में रखें, तत्पश्चात् सो जाएँ, आपको
उत्तर मिल जाएगा। पीर बहाउद्दीन मखदूम ने ऐसा ही किया। उनको रात में स्वप्न हुआ कि
वह हज़ यात्रा पर जा रहे थे। रास्ते में उनके जहाज को तूफान के कारण एक टापू पर शरण
लेनी पड़ी। उस दीप में एक छोटी पहाड़ी थी, जिसके शिखर पर उनको कुछ लोग बँदगी करते
दिखाई दिये। जब भोजन का समय हुआ तो सभी के लिए परोसा हुआ भोजन प्राप्त हुआ। कोई भी
भूखा नहीं रहा, सभी सन्तुष्ट थे। दूसरे दिन बहाउद्दीन मखदूम समुद्र के किनारे बैठे
थे कि समुद्र में घनघोर वर्षा होने लगी परन्तु धरती पर सूखा पड़ा हुआ था। ऐसा देखकर
पीर जी ने कहा, हे खुदा ! जहां वर्षा की आवश्यकता है, वहाँ तो वर्षा हो नहीं रही।
जहां पहले से पानी ही पानी है वहाँ पर वर्षा हो रही है। यह क्या माजरा है ? बस फिर
क्या था, वर्षा समुद्र में न होकर धरती पर होने लगी। पीर जी भोजन के लिए जब पहाड़ी
के शिखर पर पहुँचे तो सभी को समय अनुसार भोजन प्राप्त हुआ। किन्तु पीर जी के लिए आज
भोजन नहीं भेजा गया। पीर जी विवशता के कारण भूखे रहे। पीर जी अगले दिन फिर से
समुद्र किनारे जा बैठे। वहाँ उन्होंने देखा समुद्र में एक जहाज तूफान के कारण डूब
रहा था। पीर जी से न रहा गया। उन्होंने खुदा से कहा, हे खुदा! इन यात्रियों के
परिवार इनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। इसलिए जहाज़ डूबना नहीं चाहिए। जहाज़ डूबने से
बच गया। पीर जी वापस पहाड़ी पर पहुँचे। पीर जी के लिए आज भी कुछ न आया, बाकी सभी ने
भोजन प्राप्त किया। इस पर इबादत-गीर लोगों ने पीर जी से पूछा, आप पहले भी कभी भूखे
रहे हैं ? पीर जी ने कहा, नहीं। यह सुनकर इबादत-गीरों के मुखिया ने कहा, तो जरूर
आपसे कोई भूल हुई है, नहीं तो यहाँ कोई भूखा नहीं रहता। पीर जी ने उत्तर में कहा,
कल मैंने शँका व्यक्त की थी कि पानी क्यों समुद्र में बरस रहा है, जबकि धरती को इसकी
आवश्यकता है तथा आज मैंने डूबते हुए जहाज के लिए खुदा से गिला-शिकवा किया है। यह
सुनकर इबादत गीरों के मुखिया ने कहा, जो व्यक्ति खुदा के कामों में हस्तक्षेप करके
अपने आप को उससे अधिक बुद्धिमान समझता है वहाँ उसके लिए भोजन नहीं जुटाया जाता।
भोजन केवल उन्हीं के लिए है जो खुदा के प्रत्येक कार्य में प्रसन्नता व्यक्त करते
हैं अर्थात उसकी रज़ा में ही राजी रहने के आदी हैं। इस उत्तर को पाते ही बहाउद्दीन
मखदूम की आँख खुल गई। वह जल्दी से उठे और स्वप्न के भावार्थ को समझने लगे। उन्होंने
महसूस किया कि वह प्रकृति के कार्यों में हस्तक्षेप करता है। प्रभु के सामने मनमानी
करने का दोषी है क्योंकि वह अक्सर आत्मिक शक्ति, रुहानी ताकत का प्रदर्शन करके अपने
पैरेकारों को भ्रमाता है तथा अपनी मान्यता करवाता है। दूसरे दिन पीर बहाउद्दीन
मखदूम जब गुरुदेव के सामने उपस्थित हुए तो चरणों में नत-मस्तक हो कर कहने लगे, मुझे
ज्ञान हो गया है कि गुरू की आज्ञा में ही रहने से खुदा की प्रसन्नता प्राप्त हो सकती
है। मैं आइन्दा भूलकर भी अपनी मनमानी नहीं करूँगा। खुदा की रज़ा में सदैव ही खुशी
अनुभव करूँगा। गुरुदेव ने उनका मार्ग दर्शन करते हुए कहा, मनमुख सदैव भटकते हैं
केवल गुरुमुख ही लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। गुरू जी उस पीर जी के स्नेह के
कारण कुछ दिन और उनके पास ठहरे तद्पश्चात् ‘उच्च’ नगर की तरफ प्रस्थान कर गए।