24. मठ गोरख हटड़ी (पिशावर नगर, सीमा
प्राँत)
श्री गुरू नानक देव जी ज़लालाबाद से दर्रा खैबर पार करके पिशावर
नगर में पहुँचे। उन दिनों वहाँ पर सिद्ध-योगियों का एक प्रसिद्ध मठ गोरख हटड़ी था।
उन योगियों के आलौकिक बल के चमत्कारी प्रभाव में जनसाधारण फँसे हुए थे। अतः साधारण
जनता उन लोगों की खुशामद, चापलूसी करना ही धर्म-कर्म समझती थी तथा इसी कार्य में
अपने को ध्न्य मान लेते थे। भूली-भटकी जनता का मार्गदर्शन करते हुए गुरुदेव ने अपने
प्रवचनों में कहा, सेवा करना उत्तम कार्य है परन्तु भय अथवा किसी दबाव में आकर सेवा
करने से कोई लाभ नहीं। वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति को स्वयँ का जीवन प्रभु नाम में
रँगना अति आवश्यक है। यही नाम समय आने पर फलीभूत होता है। गुरुदेव की विचारधारा का
समस्त जनता पर गहरा प्रभाव हुआ। इससे योगियों को चिन्ता हुई। वे गुरुदेव से मिलने
आए। गुरुदेव ने उन्हें चुनौती देते हुए कहा: हठ योग से कोई लाभ होने वाला नहीं।
प्राप्ति तो सहज मार्ग से, गृहस्थ में रहकर कहीं अधिक हो सकती हैं। शर्त केवल यही
है कि जीवन चरित्र को उज्ज्वल रखकर जीया जाए। योगी कहने लगे: हठ योग से हमने अपनी
आयु दीर्घ कर ली है। योग साधना से हम ऐसी ही कई प्राप्तियाँ कर सकते हैं। इस पर
गुरुदेव ने कहा: इन अलौकिक शक्ति प्राप्तियों से व्यक्ति अभिमानी होकर प्रभु चरणों
से दूर हो जाता है। अभिमान ही एक ऐसा रोग है जो कि प्राणी तथा प्रभु के मध्य दीवार
के समान खड़ा हो जाता है। इस प्रकार सिद्धि प्राप्त व्यक्ति अपने मूल लक्ष्य से
विचलित होकर भटक जाता है। रही बात आयु बढ़ाने की, जनसाधारण को तो इस की आवश्यकता ही
नहीं होती। क्योंकि शरीर रूपी पुराने, वृद्ध चोले को क्यों धारण करके रखा जाए जबकि
वह जरजर हो चुका होता है अर्थात कई प्रकार के रोगों से ग्रस्त होकर कष्टों का कारण
बना रहता है। जब तक पुराना चोला छूटेगा नहीं तब तक प्रकृति सुन्दर स्वस्थ नई काया
कैसे प्रदान करेगी। यह सुनकर योगी बोखला उठे और कहने लगे: पहले यह बताओ मनुष्य कितनी
आयु भोग सकता है ? गुरुदेव ने कहा: इस विषय में आपको अधिक ज्ञान है, आप ही इस पर
प्रकाश डालें। एक योगी अपना अनुभव बताते हुए कहने लगा: यदि शरीर की ठीक से देखभाल
की जाए। पौष्टिक आहार तथा व्यायाम किया जाए तो मनुष्य समान्यतः सौ वर्ष सरलता से
स्वस्थ रहते हुए जीवन व्यतीत कर सकता है। इस पर दूसरा योगी बोला: कि योग-अभ्यास से
इस आयु को कई गुणा बढ़ाया जा सकता है।
यह सब सुनकर गुरुदेव ने अपना निर्णय देते हुए कहा:
हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ।।
नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जा के जीअ पराणा ।।
राग धनासरी, अंग 660
गुरुदेव ने कहा, मैं जो यह श्वास ले रहा हूँ वही मेरा अपना है
परन्तु दूसरा श्वास जो मैंने अभी लेना है उस के विषय में कुछ नहीं कह सकता कि वह
श्वास, साँस आए या न आए। न जाने कब हृदय गति बन्द हो जाए। इसलिए मैं मृत्यु को सदैव
सामने रखकर कार्य करता हूँ। सभी गुरबाणी ओर उसके अर्थ जानकर सन्तुष्ट हो गये।