23. काया अमूल्य निधि (जलालाबाद नगर,
अफगानिस्तान)
श्री गुरू नानक देव जी काबुल से लौटते समय जलालाबाद पहुँचे। वहाँ
की जनता ने बहुत चाव से आपका कीर्तन श्रवण किया तथा आपको बताया कि वहाँ से कुछ दूरी
पर एक गाँव में एक साधु रहता है जिसका नाम घडूका है। वह साधु सदैव मौन रहता है किसी
से कुछ नहीं कहता, जो कुछ खाने को मिल जाता है उसी पर सँतोष कर लेता है। प्रर्याप्त
भोजन इत्यादि न करने के कारण उसका शरीर केवल हड्डियों का पिँजर मात्र रह गया है। यह
जानकारी प्राप्त होते ही गुरुदेव जी, वहाँ पर पहुँचे जहां पर घडूका साधु मौन धारण
करके हठ योग से भजन बँदगी में लीन था। गुरुदेव ने जब उसके शरीर की ऐसी दशा देखी तो
उनको बहुत दुख हुआ और कहने लगे– ‘यह शरीर प्रकृति का दिया हुआ अद्भुत उपहार है। इस
शरीर को प्रभु ने मनुष्य की आत्मा के लिए एक मकान के रूप में रखा है, जिसको
अन्दर-बाहर दोनो रूपों से स्वस्थ रखना मनुष्य का कर्त्तव्य है। इस शरीर का यदि कोई
अपमान करता है अर्थात आत्महत्या करता है, भले ही वह किसी विधि द्वारा हो तो वह एक
बड़ा अपराध है। जिसका उत्तरदायित्व उस पर है, इसलिए अपने शरीर के प्रति सदैव ही
सावधान रहना चाहिए। यदि शरीर रोगी होगा या नहीं रहेगा तो अपना जीवन लक्ष्य कैसे
प्राप्त कर सकेंगे। यह सुन्दर काया बार-बार नहीं मिलती। अतः जो मिली है उसका उचित
ध्यान रखना तथा उससे उचित कार्य लेना मनुष्य का पहला धर्म है। उस समय गुरुदेव ने
भाई मरदाना जी को कीर्तन करने को कहा तथा आप जी ने शब्द उच्चारण किया:
काची गागरि देह दूहेली उपजै बिनसै दुखु पाई ।।
इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ बिनु हरि गुर पारि न पाई ।।
राग आसा, अंग 355
कीर्तन की मधुर आवाज से घड़ूके साधु की समाधि खुल गई। वह निढ़ाल
अवस्था में था अतः बोला, मुझे सहारा दो। मैं इस बाणी से अपनी मन की प्यास-तृप्ति
चाहता हूँ। तदपश्चात् गुरुदेव ने कहा, यह शरीर कच्ची गागर के समान है, न जाने कब
टूट जाए और सब काम अधूरे छूट जाएँ। अतः प्राणी को जागरुक होना चाहिए, समय रहते इस
भवसागर को पार करने के लिए हरियश करते रहना चाहिए तथा शरीर रूपी मन्दिर को भी इस
कार्य के लिए तैयार रखना चाहिए। यह सुनकर साधु बहुत प्रभावित हुआ।