20. सँसार एक मेला है (बल्लख नगर,
अफ़ग़ानिस्तान)
श्री गुरू नानक देव जी समरकँद नगर से लौटते हुए बल्लख नगर में
पहुँचे, जो कि अफ़ग़ानिस्तान का सीमावर्ती नगर है। वहाँ से बल्लख नदी आगे बढ़ती हुई दो
भागों में विभाजित हो जाती है। आजकल इस नगर का नाम वज़ीराबा है। गुरुदेव जी ने नदी
के तट पर डेरा लगाया, जहां से नदी का विभाजन हो रहा था। उन दिनों नगर में एक
वार्षिक उत्सव का आयोजन हो रहा था। उस उत्सव की विशेषता यह थी कि वहाँ पर
प्राचीनकाल से एक विशाल देग पड़ी हुई थी, किंवदन्तियों के अनुसार जिसको राजा बल ने
तैयार करवाया था। अतः उसकी याद में 40 दिन का मेला लगता था और देग़ में भोजन तैयार
करके सम्पूर्ण यात्रियों को भोजन कराया जाता था। उस भण्डारे में सभी वर्ग के लोग
भाग लेते थे जिससे परस्पर प्रेम-प्यार बना रहता था। उचित वातावरण देखकर गुरुदेव ने
शब्द गायन किया:
नदीआ वाह विछुंनीआ मेला संजोगी राम ।।
जुगु जुगु मीठा विसु भरे को जाणै जोगी राम ।।
कोई सहजि जाणै हरि पछानै सतिगुरु जिनि चेतिआ ।।
बिनु नाम हरि के भरमि भूले पचहि मुगध अचेतिआ ।।
राग आसा, अंग 439
कीर्तन की मधुरता के कारण मेले में आए लोग गुरुदेव के चारों ओर
इकट्ठे हो गए और बाणी सुनने लगे। कीर्तन की समाप्ति पर गुरुदेव ने इसके अर्थ किये–
सभी इस सँसार रूपी मेले में सभी इकट्ठे हुए हैं फिर बिछुड़ जाएँगे। अतः समय रहते
मिठास को पहचानना चाहिए तथा जीवन यात्रा सावधानीपूर्वक करनी चाहिए। विकारी मन सदैव
विचलित होकर विष भरे कार्य करने को लालायित रहता है। इसलिए सत्य गुरू की शरण में
जाकर प्रभु आराधनायुक्त शिक्षा लेनी चाहिए, जिससे चँचल मन पर नियन्त्रण रखा जा सके।
वहाँ के निवासी सैयद रज़व शाह ने अपनी शँकाओं के समाधन हेतु आप जी से बहुत से
आध्यात्मिक प्रश्न पूछे। जिनके उत्तर में गुरुदेव ने कहा, मनुष्य को सदैव सादा जीवन,
उच्च विचार धारण करने चाहिए। इस प्रकार सहज ही अल्लाह से दूरी कम होती चली जाती
है।
किआ खाधै किआ पैधे होइ ।। जा मनि नाही सचा सोइ ।।
राग माझ, अंग 142
अर्थ: अगर परमात्मा का नाम मन में नहीं है, तो सभी प्रकार के
खान-पान व्यर्थ हैं।