19. धार्मिक परिधान महत्वहीन (समरकँद
नगर, तुर्कमेनिस्तान)
श्री गुरू नानक देव जी ताशकँद से लौटते समय समरकँद नगर पहुँचे।
वहाँ पर भी लोगों में धर्म के नाम पर बहुत सी भ्रान्तियाँ फैली हुई थीं। कुछ चतुर
लोग धर्म की आड़ में अपनी आय के साधन के रूप में अपने तथाकथित पुस्तकीय ज्ञान को
धार्मिक परिधान धारण करवाकर, आध्यात्मिक व्यक्ति होने का स्वाँग रचकर मतभेद उत्पन्न
कर रहे थे। जिस कारण जनसाधारण में परस्पर प्रेम-प्यार के स्थान पर आपसी द्वेष
उत्पन्न हो रहा था। गुरुदेव जी इस निम्नस्तर की प्रवृति से बहुत खिन्न हुए। उन्होंने
ऐसे लोगों को चुनौती दी और कहा:
जगि गिआनी विरला आचारी ।। जगि पंडितु विरला वीचारी ।।
बिनु सतिगुरु भेटे सभ फिरै अहंकारी ।। जगु दुखीआ सुखीआ जन कोइ ।।
जगु रोगी भोगी गुण रोइ ।। जगु उपजै बिनसै पति खोइ ।।
गुरमुखि होवै बुझै सोइ ।। राग आसा, अंग 413
अर्थः जगत के अन्दर कोई विरला ही ब्रहमज्ञानी है, जो असली कमाई
करने वाला है। दुनियाँ में बहुत विद्वान हैं परन्तु गहरी विचार रखने वाला बंदा कोई
विरला ही है। सच्चे गुरू के मिलन के बिना सारे अहँकार की खाई में ही गिरते और भटकते
रहते हैं। सँसार नाखुश है, परन्तु कोई विरला ही खुश है। विषय विकारों में फँसने के
कारण दुनियाँ बीमार है और अपनी नेकी को गवाँकर रोती है। दुनियाँ जन्मती है और फिर
अपनी इज्जत गवाँकर मर जाती है। जो गुरू अनुसार जीता है, वो असलियत को समझ लेता है।
जनसाधारण ने आपकी उदार नीति का स्वागत किया, क्योंकि आपके द्वारा दिया गया तत्व
ज्ञान उनको प्राप्त हो रहा था। परन्तु सत्ता के बल में मौलवी लोग आपसे रूष्ट रहने
लगे, क्योंकि वे ज्ञानी लोगों को पूर्ण रूप से समाप्त करके जड़ से उखाड़ फैकना चाहते
थे। आप जी ने वहाँ पर सतसँग की स्थापना करवाई, उस सतसंगत का नाम नानक कलँदर के नाम
से प्रसिद्ध हुआ। वहाँ की भाषा के अनुसार कलँदर शब्द का भावार्थ है त्यागी पुरुष।