15. चौदह तबकों का खण्डन (बगदाद नगर,
इराक)
श्री गुरू नानक देव जी तुर्किस्तान की राजधानी इस्तम्बोल, यूरोप
से लौटते समय अरजरुम, मोसल, दजला इत्यादि नगरों से होते हुए इराक की राजधनी बगदाद
पहुँचे। आप जी ने नगर के मध्य में एक उद्यान में डेरा लगा लिया। दूसरे दिन सूर्यउदय
होने से पूर्व फज़र, प्रभात की नमाज़ के समय बहुत उँचे स्वर में, मीठी तथा सुरीली
सँगीतमय आवाज में, प्रभु स्तुति में कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। जब यह मधुर बाणी
एकाँत के समय नगर में गूँजी तो नगरवासी स्तबध रह गए। क्योंकि उन्हांने ऐसी सुरीली
सँगीतमय आवाज पहले कभी सुनी नहीं थी। निकट ही स्थानीय फ़कीर पीर बहलोल जी की खानकाह
यानि आश्रम था। गुरुदेव की आवाज को आजान यानि मूल्ला की बाँग समझकर वे बहुत
प्रभावित हुए परन्तु नगरवासी इस अनोखी सँगीतमय आजान, बाँग से अप्रसन्न थे। उनका
मानना था कि जब शरहा में सँगीत हराम है तो आजान के लिए सँगीत का प्रयोग क्यों किया
गया ? सूर्योदय होने पर कौतूहल वश जनसाधारण गुरुदेव जी के दर्शनों को आए कि देखें
कौन है ? जो बगदाद जैसे इस्लामी शहर, जहां पर शरहा का पूर्णतः पालन किया जाता है,
में नई विधि द्वारा आजान करता है ? जब जनता के अपार समूह ने गुरुदेव जी को घेर लिया।
उस समय आप जी ईश्वर की अनन्ता एवँ महानता के गीत गाने में व्यस्त थे। आप जी गा रहे
थे:
पाताला पाताल लख आगासा आगास ।।
ओड़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात ।।
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु ।।
लेखा होए त लिखिऐ लेखै होए विणासु ।।
नानक वडा आखिए आपे जाणै आपु ।। ‘जपु जी साहब’, अंग 5
इसका अर्थ नीचे है:
भाई मरदाना जी के मधुर सँगीत और आप जी के मीठे स्वर में
जनसाधारण ने जब हरियश सुना तो वे मन्त्रमुग्ध होकर सुनते ही रह गए। कुछ एक
कट्टरपँथियों ने इस घटना की सूचना वहाँ के ख़लीफा को दी। जिसने तुरन्त आदेश दिया कि
ऐसे व्यक्ति को सँगसार कर दो अर्थात पत्थर मार-मारकर मृत्यु शैया पर सुला दो।
क्रोधित भीड़ जब हाथ में पत्थर लिए गुरुदेव जी के समक्ष पहुँची उस समय कुछ बद्धिमान
व्यक्ति गुरुदेव जी से इसी विषय में विचारविमर्श कर रहे थे। उनमें पीर दस्तगीर का
बेटा भी सम्मलित था। उन्होंने पूछा कि आपने अपने कलाम में अनेक पाताल तथा अनेक आकाशों
का वर्णन किया है, जबकि इस्लामी विश्वास के अनुसार पूरे ब्रह्माण्ड में केवल सात
आकाश तथा सात पाताल, चौदह तबक हैं। शरहा के विरुद्ध गलत व्याख्या क्यों ? गुरुदेव
ने उचित समय जानकर अपने द्वारा गाई गई बाणी की व्याख्या करनी प्रारम्भ कर दी। आप जी
ने कहा. मानव की बुद्धि सीमित है। वह अपनी तुच्छ बुद्धि अनुसार विशाल प्रभु की
पूर्णतः व्याख्या नहीं कर सकता क्योंकि प्रभु अनंत है। उसको ज्ञान और बुद्धि की
सीमाओं में बाँधा नहीं जा सकता, वह असीमित है। उसके विशाल अनंत रूप को सीमाओं में
बाँधना उसका निरादर ही नहीं उसकी अनन्तता को चुनौती देना भी है। जहां तक राग अथवा
सँगीत का प्रश्न है उसके उचित प्रयोग को न समझने के कारण ही भ्रान्तियाँ उत्पन्न
हुई हैं तथा इसे हराम कहा गया है। यदि राग अथवा सँगीत की वह किस्में प्रयोग में लाएँ
जिसके श्रवण करने मात्र से मन शान्त होता है तो वह कदाचित हराम नहीं हो सकता क्योंकि
उसके द्वारा खुदा की तारीफ़ होती है। जिस सँगीत से प्रभु-भक्ति की प्रेरणा मिले उसका
निषेध करना ईश्वर भक्ति से मुख मोड़ना है। सभी राग तथा गीत-सँगीत मनुष्य की हीन
प्रवृतियों को नहीं उभारते। ईश्वर-भक्ति में यदि सँगीत का प्रयोग किया जाए तो
साधारण मनुष्य भी अपने आप को ईश्वर के समीप ले जा सकता है। मनुष्य तो मनुष्य राग,
पत्थरों को भी पिघला देता है। राग, आत्मा का भोजन है। राग में यदि ईश्वर की महिमा
का सम्मिश्रण कर दिया जाए तो राग पवित्र और आराध्य हो जाता है। गुरुदेव जी द्वारा
की गई इस व्याख्या पर पीर दस्तगीर के बेटे ने सहमति प्रकट की। परन्तु उसने प्रश्न
किया, आपने जो आजान, बाँग प्रातः काल दी थी वह तो अपूर्ण थी। उसमें आप जी ने
‘मुहम्मद रसूल लिल्लाह’ क्यों नहीं उच्चारण किया ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा: मैंने
अपनी भाषा में भी कहा था-‘ईश्वर महान है’ अर्थात अल्ला हूँ अकबर परन्तु मुहम्मद उसके
एक मात्र प्रति निधि हैं, नहीं कहा था। वह इसलिए कि जब ईश्वर महान है तो उसके
प्रतिनिधि समय-समय पर इस सँसार में आते रहे हैं और भविष्य में भी आते ही रहेंगे। अतः
नबी, रसूल, पैगम्बर, इस धरती पर नई पुस्तकें और नया विधान लेकर आते रहे हैं और आते
रहेंगे। इस व्याख्या को सुनकर, वह क्रोधित भीड़ भी शाँत हो गई जिसके हाथ में पत्थर
थे। जो कि ख़लीफा के आदेश पर गुरुदेव को मौत के घाट उतारने आए थे। इस तरह की अनोखी
घटनाओं के विषय में सुनकर, ख़लीफा भी स्वयँ उपस्थित होकर गुरुदेव से ज्ञान चर्चा
करने लगा। उस गोष्ठी में पीर दस्तगीर तथा पीर बहलोल जी भी सम्मलित हुए। गुरुदेव ने
उन सबका मन अपनी तर्क शक्ति से मोह लिया तथा सभी को निरुतर करके अपना अनुयायी बना
लिया। कुछ दिन वहाँ पर ठहरकर गुरुदेव जी ईरान देश को प्रस्थान कर गए।