6. हरिनाम रूपी धन अर्जित करने की
प्रेरणा (मण्डी, हिमाचल प्रदेश)
मनीकरण से गुरुदेव जी दूसरे भक्तजनों के साथ मण्डी पहुँचे। जैसा
कि नाम से ही विदित है उन दिनों उस स्थान पर एक बहुत बडा व्यापारिक केन्द्र था।
दूर-दूर से व्यापारी, व्यापार की दृष्टि से वहाँ आते थे। अतः वह क्षेत्र समृद्ध था।
गुरुदेव का आगमन सुनकर बहुत व्यापारी एकत्रित होकर उनके दर्शनों को पहुँचे।
व्यापारियों ने गुरू जी को बहुत सा धन अर्पित किया तथा अपने व्यापार के लिए मँगल
कामनाएँ करते हुए आर्शीवाद की इच्छा व्यक्त की, कि गुरुदेव आर्शीवाद दें ता कि उनका
व्यापार प्रफुल्लित हो। इस पर गुरुदेव ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, कीर्तन
करते हुए बाणी का उच्चारण किया:
वणजु करहु वणजारिहो वखरु लेहु समालि ।।
तैसी वसतु विसाहीऐ जैसी निबहै नालि ।।
अगै साहु सुजाणु है लैसी वसतु समालि ।।
भाई रे रामु कहहु चितु लाइ ।।
हरि जसु वखरु लै चलहु सहु देखै पतीआइ ।। सिरी राग, अंग 22
आप जी ने व्यापारियों को उपदेश देते हुए कहा कि भले ही आप
व्यापारी हैं परन्तु आप यह भूल चुके हैं कि प्राणी इस मानव समाज में किसी विशेष
प्रयोजन को लेकर आया है उसका मुख्य उद्देश्य मातलोक में हरि नाम रूपी धन अर्जित करना
है। जो कि वह सँसार से विदा होने पर प्रभु पिता को दिखा सके। जिससे प्रभु उस पर
प्रसन्न हो उठे तथा वह प्रभु के समक्ष मान-सम्मान प्राप्त करने में सफल हो जाए।
क्योंकि इस कर्म भूमि में सब व्यापारी हैं अतः प्राणी को बहुत सावधानी से सच्चा
व्यापार करना चाहिए। वास्तव में सबसे बड़ा तथा सच्चा व्यापार हरि नाम धन सँचित करना
है। मानव किसी से धोखा न करे यही सच्चा व्यापार है। गुरुदेव ने व्यापारियों से कहा
कि इस धन को जो कि आप ने भेंट किया है उसे धर्मशाला बनवाने के लिए प्रयोग में लाएँ,
ताँकि वहाँ पर प्रतिदिन साधसंगत में मिल बैठकर प्रभु स्तुति की जा सके।