39. सूफी फ़कीर मीयाँ मिट्ठा जी (पसरूर
नगर, पँजाब)
श्री गुरू नानक देव जी जम्मू से वापस लौटते समय पसरूर नगर में
पहुँचे। वहाँ एक बहुत प्रसिद्ध सूफी फ़कीर मीयाँ मिट्ठा जी रहता था। उसने गुरुदेव की
बहुत कीर्ति सुन रखी थी, उसके मन में अभिलाषा थी कि कभी गुरू नानक देव से आमना सामना
हो जाए तो वह उनसे आध्यात्मिक शक्ति परीक्षण करेगा। यदि उसका बस चला तो विचार गोष्ठी
में उन्हें पराजित भी करेगा। गुरुदेव तब पसरूर के पास कोटला गाँव में एक उद्यान में
जा बैठे और कीर्तन में लीन हो गए। मीयाँ मिट्ठा जी को जब यह ज्ञान हुआ कि उसकी इच्छा
अनुसार नानक देव जी वहाँ पधारे हुए हैं तो वह सोचने लगा कि नानक जी यहाँ तक तो चले
आए हैं। अब उसको उनके आसन तक जाना चाहिए, ऐसा विचार करके वह प्रतिद्वन्दी की दृष्टि
से गुरुदेव के समक्ष पहुँचा। गुरुदेव ने उस का स्वागत किया। इस पर मीयाँ मिटठा जी
ने गुरुदेव जी से पूछाः आप किस मुकाम पर पहुँचे हैं ? गुरुदेव ने बहुत धैर्य से
उत्तर दियाः कि अल्लाह के फज्ज़ल से इबादत कर रहे हैं उम्मीद है बरकत जरूर पड़ेगी और
इबादत कबूल हो जाएगी। इस पर मीयाँ मिटठा ने कहाः कि बन्दगी तब कबूल होती है जब रसूल
पर ईमान लाया जाए।
पहला नाउ खुदाइ का दूजा नवी रसूल ।।
ऐसा कलमा जि कहि दरगह पवहि कबूल ।। जन्म साखी
उत्तर में गुरुदेव ने कहा: आपकी पहली बात तो ठीक है अव्वल नाम
खुदा का ही है परन्तु यह बात गलत है कि दूसरा स्थान नवी अथवा रसूल का है। वास्तव
में खुदा के दर पर तो अनेक नबी, रसूल, मुहम्मद साहब खड़े हैं। खुदा को मिलने के लिए
कलमा पढ़ने के स्थान पर अपनी नियत रास करनी चाहिए और प्रेम तथा श्रद्धा से खुदा की
स्तुति करनी चाहिए।
अवल नाउ खुदाइ दा दर दरबान रसूल ।।
सेखा नीअत रासि करि दरगह पवहि कबूल ।। जन्म साखी
इस युक्ति संगत को तर्क सुनकर फ़कीर मीयाँ मिटठा निरूतर हो गया
और उसको गुरुदेव पर श्रद्धा बन आई। उसने कुछ अन्य विषयों पर आध्यात्मिक विचार
विर्मश किया और सन्तुष्ट होकर गुरू जी के चरणों में शीश झुका दिया, अन्त में वह बोला,
मैं सोचता था कि लोग आपकी बड़ाई वैसे ही बढ़ा-बढ़ाकर करते रहते है परन्तु प्रत्यक्ष
में ही आप कामल मुरशद यानि पूर्ण पुरुष हैं। आपने मेरा अभिमान ऐसे नष्ट किया है जैसे
नीबू निचोड़ने पर उसमें कुछ भी शेष नहीं रहता। अपने आप को अब मैं तुच्छ समझने लगा
हूँ। गुरुदेव ने मियाँ मिटठा जी के स्नेह के कारण कुछ दिन उसके पास ठहरना स्वीकार
किया और गुरमत दृढ़ करवाई। उसके पश्चात् गुरू जी पक्खो के रँधवे ग्राम के लिए चल पड़े।