38. रघूनाथ मन्दिर (जम्मू नगर, कशमीर)
श्री गुरू नानक देव जी की विचारधारा से प्रभावित लोगों ने गुरू
जी से अनुरोध किया कि वे कस्बा कटड़ा में उनके नगर जम्मू में भी पधारें जिससे वहाँ
पर भी अँध्विश्वास तथा कुरीतियों के प्रति समाज में चेतना लाई जा सके। जम्मू नगर मे
राजा जसवँत सिंह द्वारा निर्मित राजकीय "रघुनाथ मन्दिर" में रूढ़ीवादी विचारधारा को
बढ़ावा दिया जा रहा था, जिससे जनता अँध्विश्वास में जकड़ती चली जा रही थी।
परिणामस्वरूप जनजीवन भ्रामक हो रहा था। गुरुदेव ने नगर के मुख्य द्वार ‘गुम्मट’ के
निकट आसन लगाया और कीर्तन प्रारम्भ किया:
दुबिधा दुरमति अंधुली कार ।। मन मुखि भरमै मझि गुबार ।। 1 ।।
मनु अंधुला अंधुली मति लागै ।। गुर करणी बिनु भरमु न भागै ।। 1 ।। रहाउ ।।
मनमुखि अंधुले गुरमति न भाई ।। पसू भए अभिमानु न जाई ।। 2 ।।
राग बसंत, अंग 1190
अर्थः दैत्य भाव और मंदी अक्ल के द्वारा प्राणी अन्धे काम करता
है। मनमुख यानि मन से चलने वाला अन्धेरे में ही भटकता रहता है। मनमुख यानि अन्धा
मनुष्य अन्धी सलाह पर ही चलता है। गुरू के मार्ग पर चलने के अलावा इन्सान का सन्देह,
दुबिधा दूर नहीं होती। मनमुख और मति से अन्धा मनुष्य गुरू के उपदेशों को पसन्द नहीं
करता। वो जानवर बन गया है और उसका अभिमान नहीं जाता और उसकी मुक्ति सम्भव नहीं होती।
‘गुम्मट’ द्वार, नगर का मुख्य केन्द्र था। वहाँ पर गुरू जी की ‘बाणी’ श्रवण करने के
लिए विशाल भीड़ इकट्ठी हो गई। शब्द की समाप्ति पर गुरुदेव ने कहा– प्राणी को दुविधा
में नहीं जीना चाहिए क्योंकि दुविधा के कर्म को कोई फल नहीं लगता, इसलिए दृढ़ता से
निश्चित होकर, अँधविश्वासों से छुटकारा प्राप्त करना अनिवार्य है नहीं तो हमारा
परीश्रम व्यर्थ जाएगा। यह बातें सुनकर बहुत से लोगों ने जिज्ञासा व्यक्त की कि वे
क्या शिक्षा देना चाहते हैं ? इस पर गुरुदेव ने कहा, आप वास्तव में सर्वशक्तिमान को
आराधना चाहते हैं परन्तु उसके लिए साधन के रूप में एक मूर्ति अपने और प्रभु के बीच
स्थापित कर ली है। जिसके द्वारा आप प्रभु में लीन होना चाहते हैं किन्तु ऐसा होता
नहीं है। आरम्भ में तो मूर्ति पूजक अपने आराध्य को स्मरण करने मात्र के लिए उसकी
मूर्ति बनाता है। किन्तु मूर्ति पूजन से जीवन में धीरे-धीरे ऐसी अवस्था आ जाती है
जब वह मूर्ति को साधन के बदले साध्य मानने लग जाता है। इस प्रकार वह अपने रास्ते से
भटक जाता है और उसका परीश्रम फलीभूत नहीं होता। अतः समय रहते आरम्भ में ही सावधनी
से अपने इष्ट की आराधना ‘दिव्य ज्योति’ मानकर करनी चाहिए जिससे चूकने का प्रश्न ही
समाप्त हो जाता है।