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34. बाल गुदाई जी (गुरुदेव जेहलम, बाल गुदाई क्षेत्र में)

श्री गुरू नानक देव जी रावल पिंडी से प्रस्थान करके जिला जेहलम के एक टीले पर पहुँचे। यहाँ एक योगी सम्प्रदाय का आश्रम था, जिसके महन्त श्री बालकनाथ जी थे। लोग इनको बाल गुदाई के नाम से सम्बोधन करते थे। आप जी अतिथि सत्कार पर बहुत ध्यान देते थे। आश्रम से किसी को निराश नहीं जाने देते थे। जब इनको ज्ञात हुआ कि आश्रम के निकट ही कुछ फ़कीर निर्जन स्थान पर बैठे कीर्तन कर रहे हैं तो इन्हें आश्चर्य हुआ। उसी समय इन्होंने एक सेवक को भेजकर गुरू बाबा जी को अपने यहाँ बुलाने के लिए भेजा। परन्तु गुरुदेव जी ने इनका निमन्त्रण अस्वीकार कर दिया। यह जानकारी प्राप्त होते ही वह स्वयँ गुरू जी का स्वागत करने पहुँचे और प्रार्थना करने लगे कि आप कृपया हमारे आश्रम में पधारें और हमें कृतार्थ करें। गुरुदेव कहने लगे, हमें यहाँ कोई कष्ट नहीं। हम अतीत साधु हैं, हम साधनों के अभाव में भी सामान्य जीवन कुशलता से जीने के अभ्यस्थ है। किन्तु बाल गुदाई जी हठ करने लगे कि आप हमें सेवा का अवसर प्रदान करें। उनकी अपार श्रद्धा देखकर गुरुदेव ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। आश्रम में बाल गुदाई जी ने गुरुदेव जी की अपने हाथों से सेवा प्रारम्भ कर दी तथा आप जी के समक्ष कुछ आध्यात्मिक जीवन में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के विषय में शँकाएं रखीं। पूछने लगे कि भवसागर किस विधि पार किया जा सकता है ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा, केवल अपनी सुरति निराकार पारब्रह्म परमेशर, दिव्य-ज्योति में एकाग्र करके आराधना करने पर प्राप्ति होती है। इसके लिए हठ योग के आसन या जप-तप, सँजम इत्यादि क्रियाओं की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि फलीभूत तो आपके ध्यान को ही होना है, जो कि सहज अवस्था में प्रत्येक प्राणी मात्र कर सकता है:

जप तप संजम करम न जाना नामु जपी प्रभ तेरा ।।
गुरु परमेसरु नानक भेटिओ साचे सबदि निबेरा ।।
राग रामकली, अंग 878 

आध्यात्मिक दुनियाँ का मुख्य सूत्र प्राप्त करके बाल गुदाई जी अति प्रसन्न हुए तथा उन्होंने गुरुदेव से दीक्षा ली। बाकी का जीवन हठयोग त्यागकर सहज जीवन जीने का निर्णय लेते हुए सेवा सिमरन में जुट गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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