33. सदा रहन-सहन पर बल (रावल पिंडी
नगर, पँजाब)
श्री गुरू नानक देव जी हसन अबदाल (पँजा साहिब जी) से प्रस्थान
करके पँजाब की तरफ बढ़ते हुए रावलपिंडी नगर में पहुँचे। यह नगर उन दिनों भी उत्तरी
पँजाब का बहुत बड़ा व्यापारिक केन्द्र था। वहाँ जाने के लिए वहाँ से ही रास्ता आगे
जाता था। आवागमन तथा व्यापारिक सुख सुविधा होने के कारण वहाँ की आर्थिक दशा बहुत
अच्छी थी। अधिकाँश लोग धनी थे, अतः रहन-सहन बहुत ऊँचे स्तर का था। गुरू जी नगर के
बाहर मुख्य सड़क पर जब एक बरगद के वृक्ष के नीचे कीर्तन में लीन हो गए तो वहाँ पर
राहगीरों की भीड़ इकट्ठी हो गई। वे सब आँनद विभोर हो रहे थे तथा मधुर सँगीत के
आकर्षण के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। तभी काशमीर की सैर करके लौट रहे एक बड़े सेठ
ने जब भीड़ को देखा तो उसने अपने टाँगे को रुकने का आदेश दिया, और पूछा वहाँ भीड़ क्यों
है ? इसके उत्तर में एक श्रोता ने बताया कि कोई फ़कीर मस्ती में गा रहा है, जिसका
आँनद राहगीर उठा रहे हैं। यह सुनते ही टाँगे से उतरकर भीड़ को चीरते हुए सेठ आगे बढ़ता
हुआ गुरुदेव के पास पहुँचा और चरण स्पर्श करके बैठ गया। कीर्तन की समाप्ति पर भीड़
के छँटते ही उसने गुरुदेव से कहा, मैं कश्मीर की सैर से लौट रहा हूँ। वहाँ पर मैं
जहां-जहां भी गया हूँ वहाँ पर घर-घर कीर्तन द्वारा हरियश करने की चर्चा सुनता रहा
हूँ। अतः मेरे हृदय में आपके दर्शनों की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न हो गई थी। अब मैं
अपने आपको भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे सहज ही में आपके दर्शन करने का अवसर प्राप्त
हुआ है, तथा वह गुरुदेव से अनुरोध करने लगा, कृपया आप मेरे घर चलें, और मुझे सेवा
का अवसर प्रदान करके, कृतार्थ करें। गुरुदेव ने उसके हृदय की सच्ची भावना देखी तो
इन्कार नहीं कर सके। उसकी हवेली में पहुँचे। यह सेठ, यहाँ का एक बड़ा उद्योगपति था।
नगर के कुछ गिने चुने कुलीन परिवारों मे सें एक होने के नाते मान्यता बहुत थी।
इसलिए जल्दी ही समस्त नगर में समाचार फैल गया कि सेठ जी के यहाँ कोई महापुरुष आये
हैं जो कि मनुष्य को उचित जीवन जीने का ढँग सिखाते हैं जिससे मनुष्य की समस्त
कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं। इस समाचार के फैलते ही दर्शनार्थी लोगों का ताँता लग गया,
जिसके कारण सेठ ने हवेली के प्राँगण में मँच लगाया जहां गुरू जी ने जनसमूह के समक्ष
कीर्तन करना प्रारम्भ कर दिया। आप उच्चारण करने लगे:
सचु सभना होइ दारू पाप कढै धोइ ।।
नानकु वखाणै विनती जिन सचु पलै होइ ।। राग आसा, अंग 468
कीर्तन के पश्चात् गुरुदेव ने संगत को सम्बोधन करके कहा, हे
भक्तजनों मनुष्य को अपने आचरण को उज्ज्वल करने के लिए जीवन को सत्य के मार्ग द्वारा
तय करना चाहिए। इस से सभी प्रकार की समस्यायों का समाधान स्वयँ ही हो जाता है।
पहले-पहल कुछ कठिनाइयाँ अवश्य दिखाई देती हैं। परन्तु धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाता
है, क्योंकि प्रभु ही सत्य है जो कि इस मार्ग पर चलते समय सहायता करता है। प्रवचनों
के पश्चात् सेठ जी द्वारा भोजन व्यवस्था में बहुत स्वादिष्ट व्यँजन परोसे गए जिसे
देखकर गुरू जी कह उठे:
बाबा होरु खाणा खुसी खुआरु ।।
जितु खाधै तनु पीडीऐ मन महि चलहि विकार ।। राग सिरी, अंग 16
गुरुदेव कहने लगे, भोजन, केवल शरीर को स्थिर रखने के लिए करना
चाहिए न कि ऐसा भोजन करें जिसके सेवन से मन में विकार उत्पन्न हो। सादा भोजन ही
मनुष्य को चिरजीवी तथा स्वस्थ रखता है। केवल जीभ के स्वादों के चक्र में पड़कर भोजन
करने के लिए जीयेंगे तो अपना अमूल्य जीवन नष्ट करने के अतिरिक्त कुछ नहीं पायेंगे।
इस प्रकार गुरुदेव प्रत्येक विषय पर अपनी विचारधारा समय-समय पर देने लगे। कुछ
दर्शनार्थियों ने गुरुदेव के सम्मुख बहुमूल्य वस्त्र भेंट किए जिसे देखकर गुरुदेव
कह उठे:
बाबा होरु पैनणु खुसी खुआरु ।।
जितु पैधे तनु पीड़ीऐ मन महि चलहि विकार ।। 1 ।। रहाउ ।।
राग सिरी, अंग 16
गुरुदेव ने कहा: हे सत पुरुषों ! हमे अपने खानपान का ध्यान
अवश्य ही रखना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि हम वह वस्त्र धारण करें जिससे मन में विकार
उत्पन्न हो और मन एकाग्र होने के स्थान पर चँचल प्रवृति वाला हो जाए।