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30. साधु वेष में धन अर्जित करने की आलोचना (उड़ी क्षेत्र, काशमीर)

श्री गुरू नानक देव जी बारामूला से उड़ी क्षेत्र में पहुँचे। आप जी ने एक निर्जन स्थान पर आसन लगाकर भाई मरदाना जी के साथ प्रभु स्तुति में कीर्तन प्रारम्भ कर दिया: 

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूप किनेहा ।।
इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ।। 2 ।।
अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ।।
एक पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ।।
तेरे गुण बहुते मै एकु ना जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ।।
प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ।।
राग सोरठि, अंग 596

अर्थः मैं जिधर भी देखता हूँ, वहाँ पर ही मैं तेरा (परमात्मा का) प्रकाश पाता हूँ। किस किस्म और किस तरह का है यह तेरा रूप, तेरा स्वरूप ? तेरा केवल एक ही स्वरूप है और तूँ अदृश्य होकर भ्रमण करता है। तेरी रचना में कोई भी किसी के जैसा नहीं है अर्थात सभी अलग-अलग हैं। अंडज जेरज, सेतज और उतभुज यानि अण्डे से पैदा हुए, जेर से पैदा हुए, धरती से पैदा हुए सारे जीव तेरे द्वारा ही रचे गए हैं। तेरी एक करामात तो मैं देख ही रहा हूँ कि तूँ सभी में व्यापक है, यानि सभी के अन्दर एक समान व्यापक है। तेरी बहुत खुबियाँ हैं, परन्तु मैं एक भी अनुभव नहीं करता। मेरे जैसे मूर्ख को भी कुछ समझ दे, हे स्वामी ! हे हरि ! हे परमात्मा ! नानक विनती करता है कि हे मेरे साहिब ! मेरे जैसे डूबते हुए पत्थर को बचा ले। गुरुदेव कीर्तन में लीन थे कि तभी वहाँ पर साधु वेष-धारण किये हुए कुछ व्यक्तियों की टोली आ गई। वह भी गुरुदेव का कीर्तन सुनने लगे। कीर्तन की समाप्ति पर उन्होंने गुरुदेव से पूछा, आप नगर के बाहर, सुनसान में क्यों बैठे हैं ? यहाँ आप को क्या लाभ है ? यहाँ पर तो आपको कोई भोजन भी नहीं पूछेगा। उत्तर में गुरुदेव ने कहा, आपका प्रभु पर पूर्ण भरोसा होना चाहिए। वह स्वयँ आपकी आवश्यकता पूर्ण करता है, इसलिए किसी बात की चिन्ता मत करो ? वे लोग वास्तव में गुरुदेव से कश्मीर घाटी के विषय में जानकारी प्राप्त करना चाहते थे कि सबसे अधिक यात्री कहां-कहाँ होते हैं? उन्होंने जल्दी ही अपना वास्तविक उद्देश्य गुरुदेव के सम्मुख रखा कि उनका मुख्य लक्ष्य यात्रियों से सम्पर्क करके उनसे धन बटोरना है। अतः ऐसे स्थलों पर पहुँचकर भिक्षा में अधिक से अधिक धन इकट्ठा करना चाहते थे। उनकी नीच प्रवृति को देखकर गुरुदेव ने उनसे कहा:

गुरु पीर सदाए मंगण जाए ।। ता कै मूलि न लगीऐ पाइ ।।
घालि खाइ किछु हथहु देइ ।। नानक राहु पछाणहि सेइ ।।
राग सारंग, अंग 1245 

अर्थः तुम कभी भी उसके पैरों में ना पड़ो, जो अपने आपको गुरू और रूहानी शख्सित बताता है और घर-घर माँगने जाता है। जो मेहनत की कमाई खाता है और अपने हाथों से कुछ दान-पुण्य भी करता है, केवल वो ही, हे नानक ! सच्चे जीवन की सही राह जानता है। गुरुदेव का व्यँग सुनकर वे बहुत नाराज हुए और पूछने लगे, क्या आप भिक्षा नहीं लेते ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा, साधू-संत का मुख्य प्रयोजन जगत को सत्य मार्ग दिखाना है, न कि धन अर्जित करना। हां ! यदि कोई जिज्ञासु अपनी खुशी से सेवा-भाव से कोई वस्तु या खाद्य पदार्थ भेंट स्वरूप उनको अर्पित करता है तो वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। और परमार्थ के कार्यों में खर्च कर देते हैं, पल्लू में बाँधते नहीं। इस उत्तर पर वे वहाँ से चलते बने।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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