3. निर्विध्न प्रीति भोज (बैजनाथ नगर,
हिमाचल प्रदेश)
श्री गुरू नानक देव जी जवालामुखी से पालमपुर होते हुए बैजनाथ
नगर पहुँचे। उन दिनों इस स्थान का नाम कीड़ ग्राम था। यहाँ कीड़ प्रजाति के लोग राज्य
करते थे। उन्होंने जब गुरुदेव की स्तुति सुनी तो उनसे निवेदन किया, आप हमारे यहाँ
भोजन करने का निमन्त्रण स्वीकार करें। गुरुदेव ने असमर्थता बताते हुए कहा, हम साधु
लोग हैं। राजकीय प्रीति भोज से हमारा कोई नाता नहीं। परन्तु स्थानीय नरेश नहीं माना।
वह कहने लगा, आप मेरा भोजन स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं इस बात को अपना अपमान मानता
हूँ। गुरुदेव ने कहा, हमारे साथ बहुत से साधु-सन्यासी लोग हैं अतः आपको कष्ट होगा।
परन्तु नरेश नहीं माना वह कहने लगा, हमें सेवा का एक अवसर तो प्रदान करके देखें। इस
पर गुरुदेव ने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। फिर क्या था गुरुदेव के नाम से
परिचित जनसाधारण लोग दूर-दूर से गुरुदेव के नाम से भण्डारे में सम्मिलित होने
पहुँचने लगे। भोज के दिन अपार जन समूह एकत्रित हो गया। नरेश को बड़ी चिन्ता हुई। उसने
अपने सभी साधन जुटाए। परन्तु अपार जनसमूह को देखकर उसका साहस टूटने लगा। उसने इस
समस्या के समाधान के लिए अपने मँत्रियों से विचार किया। इस पर एक विद्वान मँत्री ने
परामर्श दिया, अब तो एक ही युक्ति है कि हम सब प्रीति भोज प्रारम्भ होने से पहले
गुरुदेव से आग्रह करें कि वह हमारे लिए प्रभु चरणों में प्रार्थना करें कि प्रीति
भोज र्निविघ्न समाप्त हो। अतः ऐसा ही किया गया। गुरुदेव ने प्रीतिभोज के आरम्भ में
सभी भक्तजनों के साथ मिलकर प्रभु चरणों में प्रार्थना की, हे प्रभु ! अपने सेवकों
की लाज आप रखना तथा बिना किसी बाधा के कार्य सम्पूर्ण हो। यही संगत की मनोकामना है।
संगत की कृपा दृष्टि होने पर भण्डारा, लंगर समाप्त होने पर ही नहीं आया। जबकि सभी
ने मन चाहा आहार प्राप्त कर लिया।