28. विकारों से मुक्ति के लिए
प्रार्थना (श्रीनगर, काशमीर)
श्री गुरू नानक देव जी, अवन्तीपुर से श्रीनगर पहुँचे। नगर के
प्रारम्भ में ही डल झील के किनारे पहाड़ी के शिखर पर एक मन्दिर है, जिसको शँकराचार्य
मन्दिर कहा जाता है। वहाँ से समस्त झील तथा नगर का दृश्य बड़ा ही मनमोहक दिखाई देता
है। गुरुदेव जब वहाँ पहुँचे तो यात्रियों की भीड़ लगी हुई थी। आप जी ने अपने नियम
अनुसार मन्दिर से कुछ दूरी पर कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। कीर्तन श्रवण करने को आपके
चारों तरफ भीड़ एकत्र हो गई। आप उच्चारण कर रहे थे:
अवरि पंच हम एक जना किउ राखउ घर बारु मना ।।
मारहि लूटहि नीत नीत किसु आगै करी पुकार जना ।।
स्री राम नामा उचरु मना ।। आगै जम दलु बिखमु घना ।। रहाउ ।।
राग गउड़ी, अंग 155
शब्द की समाप्ति पर कुछ श्रोताओं ने रचना के भाव सरल भाषा में
जानने की जिज्ञासा प्रकट की। तब आप जी ने तब प्रवचन किया, यह शरीर जिसको प्राणी अपना
कहता है इस के भीतर पाँच चोर, तस्कर (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहँकार) बैठे हुए हैं।
जो नित्य-प्रति उसे पीटते और लूटते हैं परन्तु वह अपनी गफलत की नींद सो रहा है, इन
पाँचों से बचाव के लिए प्रयास नहीं करता। जबकि वह जानता है कि ये पाँचों विकार उसके
विनाश का कारण बनेंगे। यह सुनकर एक वृद्ध व्यक्ति ने पूछा, गुरू जी आप ही बताएँ इन
तस्करों से छुटकारा किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है अतः ऐसे में सहायता के लिए
किसे पुकारें ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा अपने भीतर बैठी जीव आत्मा को पुकारना
चाहिए जो कि परमात्मा का अँश है। और रोम रोम में रमे राम को याद करना चाहिए जिससे
आत्मा को बल मिलता है और वह इन पाँचो विकारों का सामना करने के लिए शक्तिशाली बन
जाती है। जिससे प्राणी भव सागर पार करने में सफल हो जाते हैं। यह मानव जीवन सफल करने
की कुन्जी है।