26. हृदय की शुद्धि पर बल (अनँतनाग
नगर, काशमीर)
श्री गुरू नानक देव जी, मटन कस्बे से आगे बढ़ते हुए अनँतनाग नगर
में पहुँचे। वहाँ पर भी मटन की तरह एक छोटी सी पहाड़ी की गोद में से एक विशाल झराना
फूटकर निकल रहा है। उस झरने के पानी को सरोवरों में इकट्ठा किया गया है। बहता हुआ
पानी एक सरोवर से दूसरे सरोवर में से होता हुआ आगे बढ़ता है। इन सरोवरों के किनारे
मन्दिर बने हुए हैं। जिसमें से पण्डित लोग अपने विश्वास अनुसार उन दिनों मे भी देवी
देवताओं की मूर्तियों की पूजा करते थे। जब उन पुजारियों को मालूम हुआ कि पण्डित
ब्रह्मदास गुरुदेव का सेवक बन गया है तो उनको आश्चर्य हुआ, वे सभी एकत्रित होकर
गुरुदेव के सम्मुख हुए और प्रश्न किया, हे स्वामी ! हम नाम जपते हैं परन्तु वह
फलीभूत नहीं होता इसका क्या कारण हो सकता है ? उत्तर में गुरुदेव ने बाणी उच्चारण
की और कहा:
भांडा धोइ बैसि धूपु देवहु तउ दूधै कउ जावहु ।।
दूधु करम फुनि सुरति समाइणु होइ निरास जमावहु ।।
जपहु त एको नामा अवरि निराफल कामा ।। 1।। रहाउ ।।
राग सूही, अंग 728
अर्थ: यदि कोई जिज्ञासु मन की शान्ति अथवा अमृत नाम-महारस
प्राप्त करना चाहता है तो उसे कर्मकाण्ड त्यागकर हृदय रूपी बर्तन को हरि नाम रूपी
जल से धोना चाहिए। ठीक उसी प्रकार जैसे दूध के लिए जल से बर्तन धोकर धूप में सुखाकर
स्वच्छ कर लिया जाता है कि दूध कहीं खराब न हो जाए। फिर हरि नाम रूपी दूध को एकाग्र
सुरति की जामन, जाग लगाओ। इस विधि द्वारा आप अमृत रूपी हरि नाम प्राप्त करके
शान्तचित अडोल रह सकते हैं। परन्तु:
मनु कुंचरु काइआ उदिआनै ।।
गुरु अंकसु सचु सबदु नीसानै ।। राग गउड़ी, अंग 221
अर्थः आपको बार-बार गुरू उपदेश के अँकुश से मन रूपी हाथी को
नियन्त्रण मे रखना होगा।