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25. गोष्ठी-पण्डित ब्रह्मदास (मटन नगर, काशमीर)

श्री गुरू नानक देव जी पहलगाम नगर से प्रस्थान करके मटन नगर में पहुँचे। उस स्थान पर एक छोटी सी पहाड़ी की गोद में से एक विशाल चश्मा फूटकर निकल रहा है, जिसका निर्मल जल देखते ही बनता है। उस जलधारा को वहीं सरोवर का रूप दिया गया है, वहाँ यात्री स्नान करके कृतार्थ होते हैं। उन दिनों वहाँ कश्मीरी पंडितों का समूह निवास करता था जो कि यात्रियों की पैतृक सूचियाँ हरिद्वार की तरह जात-पात के आधार पर तैयार करते रहते थे तथा सँस्कृत पढ़ते-पढ़ाते थे। गुरुदेव जब वहाँ पधारे तो उन्हें वहाँ के प्रमुख पण्डित चतुरदास का लड़का ब्रह्मदास मिला, जिसके पास एक विशाल पुस्तकालय था। अतः वह वेदान्त एवँ व्याकरण का सर्वाधिक ज्ञाता था। वह जिस विषय पर भी बोलता, उसी विषय पर प्रमाणों का भण्डार प्रस्तुत करके प्रतिद्वन्दी को निरूत्तर कर देता था। जब कभी किसी विद्धान के साथ विचार गोष्ठी होती तो शर्त यही रखी जाती कि पराजित पक्ष की पुस्तकें इत्यादि जब्त कर ली जायेंगी। इस प्रकार ब्रह्मदास ने विद्वानों को चुनौती देकर गोष्ठिओं के लिए विवश करके उनकी अमूल्य पुस्तकें जब्त कर ली थी। गुरुदेव से भेंट होने पर उसने पहला प्रश्न किया: आप किस सिद्धाँत में विश्वास रखते हैं तथा आपने कौन-कौन से शास्त्र इत्यादि पुस्तकें पढ़ी हैं ? गुरुदेव ने उत्तर दियाः

कोई पड़ता सहसाकिरता कोई पड़ै पुराना ।।
कोई नामु जपै जपमाली लागै तिसै धिआना ।।
अब ही कब ही किछू न जाना तेरा एको नामु पछाना ।।
राग रामकली, अंग 876 

अर्थः कोई सँस्कृत बोली में लिखे हुए वेदों को बाचता है और कोई पूराणों को पढ़ता है। कोई अपनी माला से नाम का उच्चारण करता है और इसके अन्दर उसकी बिरती जुड़ी हुई है। मूझे अब का और कब का कुछ भी पता नहीं, परन्तु मैं केवल तेरे एक नाम को ही पहचानता हूँ, हे परमात्मा ! परन्तु ब्रह्मदास ने अपने किताबी ज्ञान और वेद, पुराणों के अपने चयन की चर्चा छेड़ दी। उसने बताया कि वह कौन-कौन से शास्त्रों का आचार्य है तथा कौन-कौन से पंडित को उसने शास्त्रार्थ में पराजित किया है। यह सब सुनकर, वेद, कतेब की पहुँच से परे, अनुभवी ज्ञान के ब्रह्मवेता गुरुदेव बोले:

पड़ि पड़ि गडी लदीअहि पड़ि पड़ि भरीअहि साथ ।।
पड़ि पड़ि बेडी पाईऐ पड़ि पड़ि गडीअहि खात ।।
पड़ीअहि जेते बरस बरस पड़ीअहि जेते मास ।।
पड़ीऐ जेती आरजा पड़ीअहि जेते सास ।।
नानक लेखै इक गल होरु हउमै झखणा झाख ।। 467 ।।
राग आसा, अंग 467 

अर्थः अगर इतनी पोथियाँ पढ़ ली जाएं कि इन पोथियों से इतनी गाड़ियाँ भर ली जाएं जिससे इनके ढेरों के ढेर लगाए जा सकें। अगर पढ़-पढ़कर सालों के साल ही गुजारे दिए जाएं। अगर पढ़-पढ़कर साल के सारे महीने बिता दिए जाएं। अगर पढ़-पढ़कर सारी उम्र ही गुजार दी जाए और इन्हें पढ़-पढ़कर जिन्दगी की सारी साँसें ही बिता दी जाएं तो भी परमात्मा की दरगह में इसमें से कुछ भी परवान नहीं होता। हे नानक ! प्रभु की दरगह में केवल प्रभु की सिफत सलाह यानि उसकी तारीफ की बाणी और जपा गया नाम ही कबूल होता है। जबकि प्रभु की तारीफ के शबदों या बाणी के अलावा और कुछ भी कबूल नहीं होता। अन्य कार्य तो केवल अहँकार का ही कारण बनते हैं। अतः गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा कि आपने बहुत कुछ पढ़ा लिखा है परन्तु आपकी दुविधा नहीं गई। आप तत्वज्ञान से वंचित रहे हैं। आपकी अनुभव शक्ति अभी तक अन्धकार में है। निःसन्देह तुम्हारी बुद्धि पुस्तकीय ज्ञान से तीक्ष्ण और चपल हो गई है परन्तु तत्व ज्ञान की गरिमा उसे प्राप्त नहीं हुई। आपने अपने पास ज्ञान का इतना बड़ा भण्डार रखा और फिर भी सत्य ज्ञान से वंचित रहे हैं। यह ज्ञान, सदाचार की भावना से रहित होकर शरीर द्वारा की गई पूजा से नहीं मिलता। सत्य ज्ञान के मिलने पर ब्रह्मदास ने गुरुदेव के चरणों में नमस्कार किया और तत्वज्ञान की शिक्षा की याचना करने लगा। उसकी नम्रता देखते हुए गुरुदेव ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया और गुरू दीक्षा देकर सत्यमार्ग पर चलने का उपदेश दिया। वहाँ पर उपस्थित अन्य पण्डित भी इस दृश्य को देखकर श्रद्धा में आ गए। उन्होंने भी गुरुदेव से प्रश्न किया, हे स्वामी ! यदि परमात्मा हमारे भीतर है तो उसका नाम जपने की क्या आवश्यकता है ? यदि वह बाहर होता तो उसका नाम जपने की आवश्यकता भी थी। जब वह हमारे भीतर है तो नाम रटने के बिना भी दिखाई देना चाहिए ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरुदेव ने कहा, मान लो आपके हाथ मे धूल मिट्टी से सना हुआ एक दर्पण है। आप उसमें से आप अपना मुख नहीं देख सकते जब तक कि आप उसे स्वच्छ नहीं करते। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का मन मलीन है। उसके उपर से विषय विकार रूपी मलीनता दूर करने के लिए, नाम रूपी जल लेकर हृदय रूपी दर्पण धोना पड़ता है, ताकि उस प्रभु को देख सकें:

भरीऐ मति पापा कै संगि ।। ओहु धोपै नावै कै रंगि ।।
जपुजी साहिब, अंग 4 

अर्थः अगर मन पाप से गँदा हो गया है या पापों से भर गया है, तो वह केवल और केवल नाम जपने से ही साफ होगा यानि कि नाम रूपी अमृत जल से ही धुलेगा। एक अन्य पण्डित ने पूछा, गुरुदेव ! हम शास्त्रों द्वारा निर्धारित कर्म करते हैं। परन्तु हमें शान्ति नहीं मिली ? इस पर गुरुदेव ने उत्तर दिया, ‘शान्ति केवल श्रद्धा और भक्ति की भावना से प्राप्त हो सकती है। कर्मकाण्डीय बाहरी साधनों से शान्ति कदापि नहीं मिलती। प्रभु के नाम को जपने से आपको शान्ति मिलेगी और उसके साथ-साथ आपका अपना व्यवहार सदाचारी एवँ परोपकारी होना चाहिये। इस तरह आप परमपिता के दर्शन कर सकते हैं। वरना वेद शास्त्र पढ़कर भी आप भ्रम में पड़े अँहकार में डूबे रहेंगे और आपका उद्धार नहीं होगा। अतः आपको सहज अवस्था में रहकर वाद-विवादों को त्यागकर सारी मानव जाति के कल्याण के लिए सदा तत्पर रहना चाहिये। इन बातों का उन कश्मीरी पण्डितों पर बहुत प्रभाव पड़ा जिससे उन्होंने गुरू जी के दर्शाये मार्ग पर चलने का सँकल्प लिया।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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