24. निराकार प्रभु की आराधना की महिमा
(पहलगाम नगर, काशमीर)
श्री गुरू नानक देव जी, अमरनाथ की घाटी से लौटते समय पहलगाम नगर
में पहुँचे। पहलगाम में उन दिनों भी बाहरी योगीयों का भारी जमाव था। अतः आपने एक
ताल के किनारे रमणीक स्थान पर, प्रातःकाल के नित्यकर्म पश्चात् कीर्तन आरम्भ कर दिया।
सुहावने मौसम में फूलों की वादी में मधुर सँगीत के आकर्षण से बहुत से लोग गुरुदेव
के निकट आकर, कीर्तन श्रवण करने लगे। गुरुदेव उच्चारण कर रहे थे:
सत संगति कैसी जाणीऐ ।। जिथै एको नामु वखाणीऐ ।।
एको नामु हकमु है ।। नानक सतिगुर दीआ बुझाइ जीउ ।। राग सिरी अंग 72
बहुत से जिज्ञासु शब्द की समाप्ति पर गुरुदेव जी से प्रवचन करने
का आग्रह करने लगे, क्योंकि उनमें से कुछ एक ने गुरू जी से अमरनाथ में ही परिचय कर
लिया था। गुरुदेव ने कहा, मनुष्य को आध्यात्मिक उन्नति के लिए केवल उन्हीं लोगों की
संगत करनी चाहिए जो केवल एक ही प्रभु, निराकार दिव्य ज्योति की स्तुति करते हो
अन्यथा सब व्यर्थ एवँ समय नष्ट करना है क्योंकि समस्त देवी देवता भी उसी महाशक्ति
द्वारा उत्पन्न किए गए हैं। जैसे कि मनुष्यों को प्रकृति द्वारा निर्मित किया गया
है:
त्रितीआ ब्रहंमा बिसनु महेसा ।। देवी देव उपाए वेसा ।।
जोती जाती गणउ न आवे ।। जिनि साजी सो कीमत पावै ।।
राग बिलावलु महला, अंग 839
अर्थ: कहाँ तक वर्णन किया जाए, देवी देवताओं की सँख्या भी अनंत
है। जिस प्रभु ने मानव तथा देवी-देवताओं को पैदा किया है वही इस रहस्य को जानता है।
अतः प्राणी मात्र को एक ही प्रभु के अतिरिक्त किसी की भी भूलकर भी उपासना नहीं करनी
चाहिए।