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23. गोष्ठी नाथ पँथीयों से (गुरुदेव, अमरनाथ के मैदान में, काशमीर)

श्री गुरू नानक देव जी बालताल से अन्य यात्रियों के साथ आगे बढ़ते हुए अमरनाथ घाटी में पहुँचे वहाँ पर दूसरी तरफ पहलगाँव की और से भी बहुत बड़ी सँख्या मे यात्री आ रहे थे। कुछ ही समय में आप गुफा के सामने वाले मैदान में पहुँच गए जहां यात्री ताल मे स्नान इत्यादि करके विश्राम कर रहे थे। आपने वहाँ उचित स्थान देखकर कीर्तन आरम्भ करके शब्द उच्चारण किया। निकट में ही कई साधु मण्डलियाँ पहले से धूप बत्ती जलाकर, अलग-अलग बैठे अपनी क्रियाओं में व्यस्त थे। कोई ग्रँथों का पाठ कर रहा था तथा कोई आँखें मूँदकर माला फेर रहा था तथा कोई शँख बजा रहा था, इस प्रकार वे सब विभिन्न क्रियाओं मे सँलग्न थे:

गुर उपदेश साचु सुख जा कउ किआ तिसु उपमा कहीऐ ।।
लाल जवेहर रतन पदारथ खोजत गुरमखि लहीऐ ।।
चीनै गिआनु धिआनु धन साचौ एक सबदि लिव लावै ।।
निरालंबु निरहारु निहकेवलु निरभउ ताड़ी लावै ।। 3 ।।
राग प्रभाती, अंग 1332 

सभी साधु सँतों ने जब रबाब की मधुर धुन में बाणी सुनी तो वे सभी आपके निकट हो गए। शब्द की समाप्ति पर, साथ में आए हुए यात्रियों ने विनती की, हे गुरुदेव ! आप यहाँ भी अपने विचार व्यक्त करें। इस पर गुरुदेव ने सभी साधु-सँन्यासियों को सम्बोधन करके कहा, प्रभु सिमरन के बिना यह मानव जीवन व्यर्थ है। मनुष्य को स्वयँ को किसी विशेष सम्प्रदाय की वेष-भूषा धारण करके भ्रम मे नहीं पड़ना चाहिए कि वह धर्मी हो गया है। धर्म तथा शुभ कर्म गृहस्थ मे भी रह कर हो सकते हैं। वास्तव में तो हृदय में प्रभु की याद सदैव रखनी ही सिमरन है, परन्तु इसके लिए पूर्ण गुरू, सत्यगुरु की शिक्षा के आधार पर शब्द के सँयोग से अंतःकर्ण में बसे प्रभु की खोज अँतरमुखी होकर करने की आवश्यकता है। जिससे नाम रूपी अमूल्य निधि की प्राप्ति हो जाती है। गुरुदेव के विषय में जैसे ही मेले में चर्चा होने लगी, उधर भरथरी योगी भी मेले मे विशेष रूप से अपनी मण्डली सहित पधारे हुए थे, उन्होंने गुरू जी से ज्ञान गोष्ठी का आग्रह किया क्योंकि गुरुदेव सँन्यास धारण करने का खण्डन कर रहे थे। वह इस बात को चुनौती मानकर गुरुदेव से उलझने लगे। योगी ने गुरुदेव से कहा: कि हम इसलिए श्रेष्ठ हैं क्योंकि हम नारी जाति का त्याग करके प्रभु मे ध्यान एकाग्र करते हैं। जबकि गृहस्थी लोग, गृहस्थ के झमेलों में उलझे रहते हैं तथा उनके रास्ते मे नारी बाधक है। इसलिए उनका मन एकाग्र नहीं कर पाता। गुरु जी ने उत्तर में कहा: कि यह सिद्धाँत व्यवहारिक रूप में बिलकुल खोखला है। क्योंकि आपको भी जीवन निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र तथा अन्य सामाग्री की आवश्यकता है। जो कि आप गृहस्थियों से भीख माँगकर पूरी करते हो तथा उन्हीं पर निर्भर हो। तुम स्वयँ निखट्टू हो जबकि गृहस्थी अपना कर्तव्य पूरा करता हुआ, साधु संत की सेवा करके पुण्य कमाता है और आपकी तपस्या का आधा फल ले जाता है। भरथरी योगी को इस बात का उत्तर न सूझा, वह कहने लगा: कि हम जति है इसलिए श्रेष्ठ हैं। गुरुदेव जी ने उत्तर में कहा: जति होना प्रकृति का कोई नियम नहीं, यदि सभी लोग जति हो जाएँ तो सँसार की उत्पति कैसे सम्भव होगी ? जबकि आपकी अपनी माता भी तो गृहस्थी थी जिससे आपका जन्म हुआ है नहीं तो आपका अस्तित्व में आना ही सम्भव नहीं था। इस उत्तर को सुनकर योगी भरथरी शान्त हो गया। उसके अन्य साथी भी गुरु जी से पूछने लगे: नानक जी ! आप हमे बताएँ, आपने कौन सा योग धारण किया है तथा योगी को किस प्रकार से जीवन व्यापन करना चाहिए ? गुरुदेव ने शब्द उच्चारण किया:

गुर का सबदु मनै महि मुंद्रा खिंथा खिमा हढावउ ।।
जो किछु करै भला करि मानउ सहज जोग निधि पावउ ।।
बाबा जुगता जीउ जुगह जुग होगी परम तंत महि जोगं ।।
अंम्रितु नामु निरंजन पाइआ गिआन काइआ रस भोगं ।। रहाउ ।।
राग आसा, अंग 359

गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में कहा कि मैंने अंतःकरर्ण की खोज सहज योग द्वारा नाम रूपी अमृत, महारस की प्राप्ति की है। इस सहज योग में, गुरू का शब्द कानों में मुद्रा है, क्षमा मेरी खिंथा, चटाई है। प्रभु के आदेश अनुसार जीवन निर्वाह करना, मेरा योग है। जिससे मैंने ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त कर ली है। गुरुदेव ने भरथरी योगी को कहा, मेरे लिए अब समस्त मानव जाति एक है। मैंने वर्ण आश्रम का चक्र त्याग दिया है क्योंकि मैंने एक पारब्रह्म से अपना नाता जोड़ लिया है।

सभी योगियों ने गुरुदेव को तब नमस्कार किया तथा शिक्षा धारण करके अपने-अपने स्थान को लौटने लगे। गुरुदेव जी भी पहलगाम के लिए चल पड़े।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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