22. योगियों के बारह पँथ (बाल-टाल
क्षेत्र, काशमीर)
श्री गुरू नानक देव जी सर्कदू से प्रस्थान करके कारगिल पहुँचे।
उन दिनों कुछ यात्री सकारदू से अमरनाथ के वार्षिक उत्सव में भाग लेने के लिए चले जा
रहे थे। कारगिल में पड़ाव के समय उन यात्रियों ने गुरुदेव का कीर्तन सुना और
प्रभावित होकर उनसे अनुरोध किया कि अमरनाथ की यात्रा मे चलें। जिससे उनको जनसाधराण
से सम्पर्क करने मे सुविधा रहेगी। गुरुदेव ने उनके इस प्रस्ताव पर सहमति प्रकट की
और वहाँ से अगले पड़ाव ‘दरास’ से होते हुए हरियश करते हुए बालताल पहुँचे। जो कि श्री
नगर-लेह मार्ग पर स्थित है। वहाँ से अमरनाथ की यात्रा के लिए मार्ग जाता है। आप जी
को बहुत से तीर्थ यात्री श्री नगर की ओर से भी आते हुए मिले जो कि बालताल की रमणीक
घाटी मे पड़ाव डाले बैठे थे। उनमें अधिकाँश लोग नाथ पँथी थे। जिनके बारह पँथ हैं, अतः
उन सबकी कुछ न कुछ मर्यादा भिन्न रहती है। कोई जटाधारी रहते हैं, कोई रूँड-मुँड और
किसी के पास सामग्री के रूप में एक त्रिशूल, कानो में मुँद्रा, मृगछाला, गोदड़ी,
भस्म का बटूआ, शँख, सिघ्घी, करमण्डल, रुद्राक्ष की माला, डमरू भगवे कपड़े या लँगोट
इत्यादि होता है। उन्होंने जब गुरुदेव को देखा तो कौतुहलवश पूछा: क्या आप नाथ पँथी
हैं ? यदि हैं, तो कौन से पँथ से सम्बन्ध रखते हैं क्योंकि आपकी विचित्र वेष-भूषा
से कुछ जानकारी प्राप्त नहीं होती। उत्तर में गुरुदेव कहने लगे: कि मैं पूर्णतः
गृहस्थी हूँ। मेरी दृष्टि में योगी बनने की अपेक्षा गृहस्थ में वे सब प्राप्तियाँ
सहज रूप में हो सकती हैं जो हठ योग से कई वर्षों में भी नहीं हो सकती। क्योंकि
आध्यात्मिक दुनिया में शरीर से सँन्यास लेने से कुछ मिलने वाला नहीं वहाँ तो मन के
सँन्यास से प्राप्ति होती हैं, जो कि गृहस्थ मे रहकर भी सहज रूप में सम्भव है। इस
पर आपने भाई मरदाना जी को रबाब से सुर साधने को कहा और स्वयँ कीर्तन में लीन हो गये:
जोगु ना खिंथा जोग न डण्डै जोगु न भसम चड़ाईऐ ।।
जोगु न मुंदी मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंघी वाईऐ ।।
अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ।।
गली जोगु न होई ।।
एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई ।। रहाउ ।।
जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईऐ ।। राग सूही, अंग 730
कीर्तन से सबको ऐसे लगा जैसे समय को ठहरा दिया गया था। सभी
यात्री कीर्तन सुनने के लिए गुरुदेव के चारों तरफ एकत्रित हो गए। शब्द की समाप्ति
पर कुछ लोगों ने आपसे विचारविमर्श करने की इच्छा व्यक्त की। "गुरू जी ने तब अपने
प्रवचनों में कहा, किसी विशेष सम्प्रदाय की वेषभूषा अथवा सामाग्री या चिन्ह धारण
करने मात्र से कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं बन जाता। वास्तव में सँन्यास अथवा योग मन
का ही होना चाहिए। इसलिए मनुष्य को कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं यदि वह सच्चे
हृदय से घर में भी बैठकर आराधना करेगा तो वह प्रभु चरणों में स्वीकार्य होगा। गुरू
जी कहने लगे, केवल बातों से कोई योगी नहीं बन जाता उसके लिए मन से त्यागी होना अति
आवश्यक है। इसके अतिरिक्त भेद भाव मिटाकर समस्त मानवता को एक जैसा जानकर उनके
दुख-सुख में उनकी सहायता करनी चाहिए। केवल तीर्थों पर या मरघट-मसाणों में भटकने
मात्र से कुछ प्राप्त न होगा बल्कि ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे मन की इच्छाएँ
समाप्त हो जाएँ और जीवन भी मोह माया से विरक्त हो जाए। जैसे कमल का फूल पानी से
सदैव निर्लेप रहता है।" गुरुदेव की विचारधारा जानकर समस्त नर-नारी, जो यात्रा के
लिए आगे बढ़ने के लिए तत्पर थे। बहुत सन्तुष्ट हुए और आगे अमरनाथ गुफा की और बढ़ने लगे।