20. कुख्यात दस्यु का कल्याण (बासगो,
लद्दाख क्षेत्र)
श्री गुरू नानक देव जी लेह नगर से आगे बढ़ने के लिए सिंधु नदी के
किनारे-किनारे चलने लगे। जब आप निमू के स्थान से आगे बढ़े तो वहाँ पर आपको एक समाज
विरोधी लोगों का एक टोला मिला जो कि यात्रियों को रास्ते में लूट लेता था। उनका
मुख्य कार्य तस्करी करना था। उनके सरगना ने गुरुदेव को एक धनी व्यापारी समझकर, उस
स्थान पर घेर लिया। और कहा: तुम जो भी माल तिब्बत से लाए हो हमें दे दो। इस पर
गुरुदेव ने उनको अपना परिचय दिया: वे फ़कीर लोग हैं, उनके पास धन तो होता ही नहीं !
हाँ, कहो तो, नाम रूपी धन है, जो दे सकते हैं, जिससे उनकी सभी इच्छाओं की तृप्ति हो
जाएगी। परन्तु शर्त एक है, उसकी प्राप्ति के लिए, उसका पात्र बनना पड़ेगा। यह सुनकर
कुख्यात दस्यु गुर्राया और कहने लगा: हमें मूर्ख बनाते हो ! किन्तु गुरुदेव
शान्तचित मुस्करा पड़े और कहने लगे: कि तेरे आजतक के सभी कार्य मूर्खता पूर्ण ही तो
थे क्योंकि जिस धन के लिए तुमने छीनाझपटी की है बताओ वह कहाँ है ? परन्तु हम तुझे
ऐसा धन देना चाहते हैं जो तेरे पास बढ़ता ही जाएगा, कभी कोई उसे तेरे से छीन नहीं
सकेगा। इस पर दस्यु दुविधा में पड़ गया वह सोचने लगा: ऐसी भी कौन सी वस्तु है जो बढ़ती
जाए और मुझसे कोई छीन न सके यदि दान किया जाए तो बढ़ती ही जाए। उसकी जिज्ञासा बढ़ती
गई। गुरुदेव ने तब भाई मरदाने को शब्द गायन करने के लिए कहा:
हरि धनु संचहु रे जन भाई ।।
सतिगुर सेवि रहहु सरणाई ।।
तसकरु चोरु न लागै ता कउ धनि उपजै सवरि जगाइआ ।।
तू एकंकारु निरालमु राजा ।।
तू अपि सवारहि जन के काजा ।। राग मारू, अंग 1039
दस्यु ने जब यह शब्द सुना तो वह गुरुदेव के निकट बैठ गया और
पूछने लगा: आप आखिर देना क्या चाहते हैं ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा: तुमको शान्ति,
धैर्य, धीरज, सन्तोष देना चाहते हैं। इन गुणों के प्राप्त होने पर तुम्हें दोबारा
फिर कभी छीनाझपटी के लिए भटकना नहीं पड़ेगा। दस्यु का माथा ठनका वह कोई निर्णय नहीं
कर पा रहा था कि वर्तमान जीवन त्यागकर वैराग्य जीवन धारण किया जाए अथवा नहीं। एक
तरफ मानव जीवन को सफल बनाने का सूत्र था, दूसरी तरफ धन ऐश्वर्य इत्यादि। परन्तु
क्षणिक सुखों के पश्चात् आत्मिक ग्लानि इत्यादि जबकि पहली तरफ आत्म कल्याण के
साथ-साथ मानसिक शान्ति, सँतोष इत्यादि दैवीय गुणों की प्राप्तियाँ थीं। कुछ क्षण
आत्मद्वँद के पश्चात, दस्यु ने अपने पिछले जीवन के प्रायश्चित के लिए गुरुदेव के आगे
सिर झूका दिया। और कहा: महात्मा जी ! आप मुझे क्षमा करें, मैं आपकी शरण में हूँ।
गुरुदेव ने उसे अपने अंतःकरण की खोज की विधि का अभ्यास करवाया और कहा, अब तुम मानव
कल्याण के लिए कार्य करोगे। अतः यही पर यात्रियों की सेवा का कार्यभार सम्भालोगे।