19. प्रभु हमारे घट में ही बसता है (लेह
नगर, लद्दाख क्षेत्र)
श्री गुरू नानक देव जी फिर चशूल गाँव से आगे बढ़ते हुए सिंधु नदी
के किनारे-किनारे चल पड़े। रास्ते में उपशी तथा कारा नाम के कस्बों में वहाँ के
निवासियों का मार्गदर्शन करते हुए लेह नगर में पहुँचे, जिसको लद्दाख क्षेत्र का
केन्द्र माना जाता है। लद्दाख की रमणीक वादी में गुरुदेव को प्रभु की निकटता की
अनुभूति होने लगी तो वे कीर्तन में लीन हो गये:
तू दरिआउ दाना बीना मै मछुली कैसे अंतु लहा ।।
जह जह देखा तह तह तू है तुझ ते निकसी फूटि मरा ।।
न जाणा मेउ न जाणा जाली जा दुखु लागै ता तुझै समाली ।।
राग सिरी, अंग 25
अर्थः हे परमात्मा ! तूँ सब कुछ जानता है और सब कुछ देखने वाला
एक दरिया है, मैं मछली तेरा विस्तार कैसे जान सकती हूँ। मैं जिधर भी देखती हूँ, उधर
ही तूँ है। तेरे से बाहर निकलकर मैं तड़फकर मर जाती हूँ। मैं मछली पकड़ने वाले को नहीं
जानती और ना ही जाल को जानती हूँ। जब तकलीफ होती है तो मैं तूझे (परमात्मा को) याद
करती हूँ। गुरुदेव जब प्रभु स्तुति में लीन थे तो कुछ लद्दाखी नागरिक भी आपकी बाणी
श्रवण करने आए। इससे आपकी एकाग्रता में उनकी रुचि उत्पन्न हुई। वह जानना चाहते थे
कि वह आँगुतक कौन हैं, जो वहाँ पर प्राकृतिक सौन्दर्य में अपनी सुद्ध-बुद्ध खोकर,
सुरति एकाग्र करके प्रभु चरणों में लीन होने का अभ्यास रखता है ? उनमें से एक ने
स्थानीय लामा को जाकर सूचित किया कि वहाँ कोई ऐसा व्यक्ति आया है जो कि लामा लोगों
की तरह दिखाई देता है परन्तु वह लामा भी नहीं है, क्योंकि उसकी भाषा तथा प्रेम
स्तुति की विधि भिन्न है। ऐसी जानकारी मिलते ही, लामा अपने साथियों को लेकर तुरन्त
उस जगह पर पहुँचा, जहाँ गुरुदेव कीर्तन में लीन थे। कीर्तन सुनकर लामा भी प्रभावित
हुआ और सोचने लगा कि यह पुरुष अवश्य ही उनका मार्गदर्शन करने आया है। क्योंकि इस
व्यक्ति के चेहरे पर आत्मिक प्राप्तियों का तेज झलक रहा है। गुरुदेव जब उत्थान
अवस्था में आए तो वे लोग आगे बढ़े और अभिवादन करके पूछने लगे, आप कहाँ से आए हैं तथा
आपका नाम क्या है ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा, हम उस प्रभु के भेजे हुए आदमी हैं और
मेरा नाम नानक है। गुरुदेव का उत्तर सुनकर लामा की जिज्ञासा और बढ़ गई। उसने प्रश्न
किया, यह सब तो ठीक है परन्तु हम जानना चाहते हैं, आप कहाँ से आए हैं तथा आपके यहाँ
आने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर में गुरुदेव ने कहा, हम तो आपसे विचार विमर्श करने
पँजाब से आए हैं। इस पर लामा ने गुरुदेव का भव्य स्वागत करते हुए अपने यहाँ ठहरने
का प्रबन्ध किया। दूसरे दिन एक जनसभा का आयोजन करके गुरुदेव ने श्रोताओं के समक्ष
कीर्तन किया:
जिसु जल निधि कारणि तुम जगि आए सो अंम्रितु गुर पाही जीउ ।।
छोडहु वेसु भेख चतुराई दुविधा एहु फलु नाही जीउ ।।
मन रे थिरु रहु मतु कत जाही जीउ ।।
बाहरि ढूंढत बहुतु दुखु पावहि घरि अंम्रित घट माही जीउ ।। रहाउ ।।
राग सोरठ, अंग 598
अर्थ: मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य, जीवन काल को सफल बनाना है
अर्थात जिस अमूल्य वस्तु के लिए मनुष्य बार-बार जन्म मरण के चक्र में हैं वह तो उसके
हृदय में नाम, अमृत के रूप में पहले से ही विद्यमान है। उसे केवल प्रकट करना है,
परन्तु इस अमूल्य निधि की प्राप्ति विधिपूर्वक, गुरू की शिक्षा द्वारा प्राप्त होती
है। इसके लिए किसी विशेष वेषभूषा की आवश्यकता नहीं तथा ना ही किसी प्रकार की दुविधा
में पड़कर कर्मकाण्ड करने की आवश्यकता है। उसको तो केवल मन को एकाग्र करके सुरति
अर्न्तमुखी करनी है। यदि प्रभु को बाहर ढूँढते रहोगे तो प्राप्ति के स्थान पर दुख
ही दुख मिलेंगे, क्योंकि सब कुछ तो अंतःकरण में छिपा पड़ा है। गुरुदेव के प्रवचनों
से लामा तथा जनसाधारण बहुत प्रभावित हुए। सभी का मत था कि नानक जी ने उन्हें
सत्यमार्ग के दर्शन करवाए हैं। प्रभु को बाहर ढूँढने की अपेक्षा अपने अन्तःकरण मे
ही ढूँढने का प्रयत्न करना चाहिए। अतः उन्होंने गुरू जी से गुरू-दीक्षा लेकर सभी
अनावश्यक कर्मकाण्ड त्याग दिये।