17. हृदय की पवित्रता ही स्वीकार्य (रुडोक
नगर, तिब्बत)
श्री गुरू नानक देव जी ज्ञार्सा नगर से सिंधु नदी को पार करके
चलते-चलते रुडोक नगर में पहुँचे। यह पच्छिमी तिब्बत में है, वहाँ से चिशूल दर्रा को
पार करके लद्दाख क्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। गुरुदेव ने एक गुम्फा मठ के निकट
डेरा लगाकर अपने नित्यकर्मानुसार कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। कीर्तन की मधुर ध्वनि के
कारण वहाँ के लोग एक लामा, गुम्फा के पुजारी के साथ यह देखने के लिए आए कि उनके यहाँ
आज कौन आँगतुक आया है, जो कि उनके साजों की तेज ध्वनि की अपेक्षा, मधुर, कर्ण प्रिय
सँगीत में गाने की क्षमता रखता है। गुरुदेव के सकेत को पाकर वे सभी लोग गुरू जी के
निकट होकर बैठ गए और कीर्तन का आनन्द लेने लगे:
हउ ढाढी वेकारु कारै लाइआ ।। राति दिहै कै वार धुरहु फुरमाइआ
।।
ढाढी सचै महलि खसमि बुलाइआ ।।
सची सिफित सलाह कपड़ा पाइआ ।।
सचा अम्रित नामु भोजनु आइआ ।। राग माझ, अंग 150
कीर्तन की समाप्ति पर जनसमूह जानना चाहता था, गुरुदेव जी आप कहाँ
से आए हैं और मधुर स्वर में क्या गा रहे हैं ? गुरुदेव ने उन्हें बताया, उस प्रभु
का मैं एक छोटा सा, अदना सा मानस हूँ। उस प्रभु की स्तुति करके उसकी आज्ञानुसार उसके
नाम रूपी अमृत को समस्त मानव समाज में बाँट रहा हूँ। मैं इसी उद्देश्य से आपके पास
आया हूँ। यह सुनकर सभी नर-नारीयों ने गुरुदेव का भव्य स्वागत किया और उनको अपने
गुम्फा में ले गए। वहाँ पर भगवान बुद्ध की पूजा की जाती थी तथा तेज ध्वनि से बिगुल,
ढोल इत्यादि बजाए जाते थे। गुरुदेव ने गुम्फा के परिसर में अपनी सभा लगाकर जनसाधारण
को मन से आराधना करने की युक्ति बताते हुए कहा कि शरीर द्वारा किए गए कर्म काण्डों
का आध्यात्मिक दुनियाँ में कोई महत्व नहीं। वहाँ तो हृदय की पवित्रता तथा स्नेह को
ही स्वीकार किया जाता है। अतः भगवान कोई स्थूल वस्तु नहीं वह तो विशाल तथा निर्गुण
स्वरूप होकर समस्त ब्रह्माण्ड में एक रस रमा हुआ है अर्थात सर्वव्यापक है। इसलिए उसे
गुम्फा तक सीमित नहीं मान लेना चाहिए।
तू आपे आपि वरतदा आपि बणत बणाई ।।
तुधु बिनु दूजा को नहीं तू रहिआ समाई ।। राग मलार, अंग 1291
इस उपदेश को सुनकर नगर वासी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने गुरू
दीक्षा में चरणामृत प्राप्त कर सिक्खी धारण करके गुरू जी के अनुयायी बन गए और
गुरुदेव के दर्शाए मार्ग अनुसार साधसंगत की स्थापना करके निराकार प्रभु स्तुति में
दिन गुजारने लगे।