13. पुरुषार्थी होने की सीख (पाटू,
हिमाचल प्रदेश)
धर्मपुर से श्री गुरू नानक देव जी यात्रियों के साथ आगे बढ़ते
हुए सपाटू नामक स्थान पर पहुँच गए। वहाँ पर विश्राम के लिए पड़ाव डाला गया। शरीरिक
क्रियाओं से निवृत होकर आप जी सँध्या समय फिर से हरियश में शब्द गायन करने लगे।
सपाटू में ही स्वास्थ्य लाभ के लिए आए एक युवक ने गुरुदेव से भेंट की और कहा, हे
महापुरुष जी ! मुझ पर दया करें। मैं सदा अस्वस्थ रहता हूँ। वैद्य ने मुझे जलवायु
परिवर्तन के लिए पर्वतीय क्षेत्र जहां पर चीढ़ के वृक्ष हों वहाँ पर रहने का परामर्श
दिया है। मेरे रोग का निदान नहीं हो पाता, जबकि प्रभु का दिया मेरे पास सब कुछ है।
इसके उत्तर में गुरुदेव कहने लगे:
दुखु दारू सुखु रोगु भइया जा सुखु तामि न होई ।।
तू करता करणा मै नाही जा हउ करी न होई ।।
बलिहारी कुदरति वसिआ ।। तेरा अंतु न जाई लखिआ ।। रहाउ ।।
राग आसा, अंग 469
प्रकृति के कुछ नियम हैं जिसके अन्तर्गत मानव शरीर की रचना हुई
है। जो नियमों का उल्लँघन करता है वह रोगी हो जाता है परन्तु रोग भी मनुष्य भले के
लिए ही होते हैं ताकि उसे शारीरिक रचना समझने में सहायता मिले अर्थात वह उसके लिए
दवा का ही काम करता है, जिससे व्यक्ति भूलों के लिए सावधान हो जाए। क्योंकि सुख में
व्यक्ति जाने-अनजाने मे नादानियाँ करके रोग मोल लेता फिरता है। भावः यौवन के आवेश
में नशे-विषय करके जीवन विकारों में नष्ट कर देता है। इसलिए शिक्षा देने के लिए
प्रकृति दण्ड रूप में रोग देती है। अतः प्राणी को प्रकृति का सदैव ऋणी होना चाहिए।
जिसने यह सुन्दर, अमूल्य काया उपहार स्वरूप प्रदान की है। इसको सफल बनाने के लिए उसे
पुरुषार्थी होना चाहिए। आलस्य का त्यागकर अमृत बेला में प्रभु चिन्तन मे घ्यान लगाना
चाहिए तथा अपना कार्य स्वयँ करना चाहिए। जिससे सेवको के मोहताज न होकर स्वावलम्बी
बन सकें। क्योंकि आत्मनिर्भरता ही शरीर को पुष्ट करने में सहायक सिद्ध होगी।