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1. प्रचार अभियान तृतीय (जीवन सार्थक करने की युक्ति) हिमाचल

श्री गुरू नानक देव जी अपने छोटे लड़के लक्खमीदास का विवाह सम्पन्न करके अपने माता-पिता तथा सम्बन्धियों से विदा लेकर पक्खो के रँधवे ग्राम से हिमालय पर्वत श्रृँखला की यात्रा पर भाई मरदाना जी को साथ लेकर निकल पड़े। आप जी रावी नदी के किनारे चलते-चलते चम्बा नगर में पहुँचे। यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टि से अति सुन्दर व मनमोहक है। इसके रमणीक स्थानों की छटा देखते ही बनती है। यहाँ बहुत से देवी देवताओं के मन्दिर है। जहां प्रतिदिन पूजा अर्चना होती रहती है। गुरुदेव ने एक रमणीक स्थान देखकर वहाँ पर कीर्तन प्रारम्भ कर दिया। एकाँत में रबाब की मधुर धुन पर कीर्तन की ध्वनि सुनकर कुछ तीर्थ यात्री उधर चले आए जहां पर गुरुदेव कीर्तन में मग्न थे:

नदरि करे ता सिमरिआ जाइ ।। आतमा द्रवै रहै लिव लाइ ।।
आतमा परातमा एको करै ।। अंतर की दुबिधा अंतरि मरै ।।
गुर परसादी पाइआ जाइ ।।
हरि सिउ चितु लागै फिरि कालु न खाइ ।। 1 ।। रहाउ
राग धनासरी, अंग 661

तीर्थ यात्रीयों को कीर्तन में बहुत आँनद प्राप्त हुआ, उन्होंने गुरुदेव से आग्रह किया, आप हमें अपने काव्य का भावार्थ बताएँ। इस पर गुरुदेव ने कहा, हे सत्य पुरुषों भगवान की याद भी उसी को आती है, जिस व्यक्ति पर उसकी कृपा हो तथा वैराग्य भी उसी के हृदय में उत्पन्न होता है, जिसको प्रभु अपने निकट लाना चाहता है। प्रभु की कृपा के पात्र बनने के लिए जब व्यक्ति यत्न करता है तो उसकी कृपा द्वारा आत्म शँकाए मिट जाती हैं। जिस व्यक्ति का मन हरि सिमरन में रम गया हो फिर उसे बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता, अतः पूर्ण गुरू के दर्शाऐ मार्ग पर पूर्णतयः जीवन निर्वाह करने से मोक्ष प्राप्ति होती है। उन लोगों ने जब गुरुदेव से जीवन को सार्थक करने की युक्ति सुनी तो वे नतमस्तक हो गए तथा कहने लगे, हम लोग मन की शान्ति के लिए लम्बे समय से तीर्थों इत्यादि धार्मिक स्थानों की यात्रा कर रहे हैं किन्तु कहीं सन्तुष्टि प्राप्त नहीं हुई, जो कि आज आपकी संगत करने से प्राप्त हुई है। इसलिए हम आप से दीक्षा लेना चाहते हैं। कृपया आप हमें अपना शिष्य स्वीकार करें। गुरुदेव ने उनके हृदय की सच्ची लगन देखते हुए उनको, चरणामृत देकर दीक्षित करके उपदेश देते हुए अपना शिष्य स्वीकार किया। यह घटना जँगल की आग की तरह समस्त चम्बा नगर में फैल गई कि घाटी में कोई पूर्ण पुरुष आए हुए हैं जो कि सत्यमार्ग को बहुत ही सहज विधि द्वारा दृढ़ करवाते हैं। देखते ही देखते गुरू जी के दर्शनों को, अपार जनसमूह उमड़ पड़ा। गुरुदेव की स्तुति सुनकर नगर का नरेश भी अपने परिवार सहित दर्शनों को आया। वह पूर्णतः देवी उपासक था, जिस कारण उसने गुरुदेव से भान्ति-भान्ति के प्रश्न किए। उत्तर में गुरुदेव ने कहा– ज्योति स्वरूप पारब्रह्म परमेश्वर के दर्शनों की अभिलाषा लिए अपने आप को बड़े देवता कहलाने वालों ने भी साधना में बहुत कठनाइयाँ झेली हैं। यहाँ तक कि योगी, जति इत्यादि भी वेष-भूषा बदल-बदल कर तथा कई युक्तियों द्वारा तप-साधना करते हार गये किन्तु परमेश्वर का भेद और अन्त नहीं जान सके। अतः प्रभु ! अनन्त है उसके नाम भी अनेक हैं और उसके गुण भी अनेक हैं। उसके किसी एक गुण का व्यख्यान करना भी कठिन है।

देवतिआ दरसन कै ताई दूख भूख तीरथ कीए ।।
जोगी जती जुगति महि रहते करि करि भगवे भेख भए ।।
तउ कारणि साहिबा रंगि रते ।।
तेरे नाम अनेका रूप अनंता कहणु न जाही तेरे गुण केते ।।
राग आसा, अंग 358

जो व्यक्ति रोम-रोम में रमे राम को त्यागकर काल्पनिक देवी देवताओं के चक्र में अपना समय नष्ट करते हैं वह अन्तकाल में पश्चाताप की आग में जलते हैं कि उन्होंने वास्तविकता को जानते हुए भी कर्मकाण्ड में अपने को उलझाए रखा, क्योंकि भवसागर से पार उतरने का एक मात्र साधन हरि नाम आराधना ही है।

बिनु हरि नाम को मुक्ति न पावसि,
डूबि मुए बिनु पानी ।। राग भैरउ मः 1, अंग 1127

गुरुदेव के वचनों से स्थानीय नरेश बहुत प्रभावित हुआ। उसने गुरुदेव की शिक्षा धारण करके एक धर्मशाला की स्थापना करवाई और फिर वहाँ पर निरँकार की उपासना के लिए संगत प्रतिदिन प्रभु स्तुति करने लगी। वहाँ से प्रस्थान करके गुरुदेव काँगड़ा क्षेत्र में चले गए।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
     
     
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