8. अवतारवाद का खण्डन (चित्तौड़गढ़,
राजस्थान)
श्री गुरू नानक देव जी अजमेर से प्रस्थान करके चित्तौड़गढ़ की ओर
बढ़े। रास्ते में विशाल वीरान होने के कारण कहीं भी बस्ती नहीं थी इसलिए पानी न मिलने
के कारण भाई मरदाना जी को बहुत कष्ट उठाने पड़े। अन्त में गुरुदेव चितौड़गढ़ पहुँच गए।
वहाँ के नागरिकों ने बिना काफिले के वहाँ पहुँचने पर आश्चर्य व्यक्त किया तथा वहाँ
पधारने का उद्देश्य पूछा। उत्तर में गुरुदेव ने कहा: हम केवल एक पारब्रह्म-परमेश्वर
के उपासक हैं। अतः हम उसी के गुणगान करने के लिए विश्व-भ्रमण करने निकले हैं। यह
सुनकर वहाँ की जनता ने कहा: हमारे यहाँ तो 24 अवतार माने जाते हैं तथा उन की पूजा
की जाती है, जिसके लिए हमने पहले तीर्थकर का स्तम्भ भी निर्माण कर रखा है और उसी की
उपासना करते हैं। इस पर गुरुदेव ने भाई मरदाना जी को कीर्तन करने को कहा और गुरू जी
ने बाणी उच्चारण की:
एकम एकंकार निराला ।। अमर अजोनी जाति न जाला ।।
अगम अगोचरु रूपु न रेखिआ ।। खोजत खोजत घटि घटि देखिआ ।।
जो देखि दिखावै तिस कउ बलि जाई ।। गुर परसादि परम पदु पाई ।।
राग बिलावलु, अंग 838
उपरोक्त बाणी सुनकर श्रोताओं ने बहुत से प्रश्न किये जिसका
उत्तर गुरुदेव ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार दिया– समस्त ब्रह्माण्ड का निर्माता
एक प्रभु ईश्वर ही है, जो एक मात्र अमर, माता के गर्भ से जन्म न लेने वाला, जिस का
रँग रूप नहीं, वह निराकार, ज्योति स्वरूप, प्रत्येक प्राणी मात्र में रमा हुआ है।
इस के विपरीत अवतार तो माता की कोख से जन्म लेते हैं तथा वे अमर नहीं क्योंकि उनका
मरण भी निश्चित है। अर्थात जो जन्म-मरण में आता है वह प्रभु, पारब्रह्म परमेश्वर नहीं
हो सकता क्योंकि वह आवागमन के चक्र में बँधा हुआ है। उत्तर सुनकर सभी सन्तुष्ट हो
गये।